मंगलवार, 25 मई 2010

झारखण्ड का झंझट

झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा की सरकार अल्पमत में आ गई है। बीजेपी के समर्थन लेने के बाद गुरूजी को 31 मई तक विधानसभा में अपना बहुमत साबित करना है। 81 सदस्यों इस विधानसभा में बहुमत का आंकडा 41 का है। बहरहाल जो तस्वीर सामने निकलकर आ रही है उसमें जेएमएम के पास 18 विधायक है। आजसू के 5, जेडीयू के 2, आरजेडी के 5 और 8 निर्दलीय है। इनमें से आजसू जेडीयू और 2 निर्दलियों का समर्थन फिलहाल गुरूजी के पास है। मगर इनकी भी श्रद्धा कब डोल जाए इसका भी कोई अता पता नही। यानि इन आंकडों के हिसाब से गुरूजी को 16 विधायकों का इन्तजाम और करना है। इधर कांग्रेस और मराण्डी के पास 25 विधायकों की फौज है। मगर शिबू मराण्डी अध्याय का लेखा जोखा किसी से छिपा नही है। यही कारण है कि सरकार बनाने की पहल करने से पहले कांग्रेस को इस कहानी को सुलझाने में पसीना बहाना पड सकता है। बाबूलाल मराण्डी ने फिलहाल जो  संकेत दिये है उससे साफ है कि मुख्यमन्त्री से कम पर वो नही मानने वाले। वैसे भी शिबू सोरेन का मुख्यमन्त्री बनने का रास्ता अब समाप्त हो गया है क्योंकि उप चुनाव की मियाद जून में समाप्त हो रही है और इतनी जल्दी चुनाव करना नामुमकिन है। लालू भी कांग्रेस के नए एपीसोड में कहीं फिट होते नही दिखाई दे रहे है क्योंकि इसकी फीस वो बिहार में मागेंगे। दूसरी तरफ कांग्रेस के पास ऐसा कोई दावेदार नही जो झारखण्ड में उसकी नैया पार लगा दे। सुबोधकान्त सहाय को रांची के बाहर कितने लोग जानते है इसमें संशय है। मगर सुनने में आ रहा है कि वो शिबू के साथ अदलाबदली करने को तैयार है। यानि शिबू को उनका मन्त्रालय और सहाय सहाब मुख्यमन्त्री। मगर इस फार्मूले में भी कई अगर मगर है। बहरहाल झारखण्ड घटनाक्रम से अगर कोई फायदे में है या जनता जिसे चाह रही हो वह केवल और केवल बाबूलाल मराण्डी है। अगर यह मुमकिन नही हो पाता तो एक मात्र रास्ता राष्ट्रªपति शासन है। झारखण्ड राज्य 15 नवंबर  2000 को अस्तित्व में आया। अपने 10 साल के सफरनामें में यह  राज्य 7 मुख्यमन्त्री देख चुका है। बाबूलाल मराण्डी से लेकर अर्जुन मुण्डा और शिबू सारेन से लेकर मधु कोडा तक ने यहां राज किया। मधु कोड़ा ने तो निर्दलीय के तौर पर मुख्यमन्त्री बनकर इतिहास रच दिया। नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित यह राज्य देश में 41 फीसदी खनिज संपदा से भरा है। 52 फीसदी जनता गरीबी से नीचे जीवन यापन कर रही है। बेरोजगारी दिन पर दिन यहां पैर पसारते जा रही है। भ्रष्टाचार के यहां अनगिनत अध्याय लिखे जा चुके है। इन सब के बीच  आम झारखण्डी के खाते में अगर कुछ अगर कुछ बचा है  तो वह है निराशा घोर निराशा। नये राज्य बनने को लेकर जो संपने उसने संजोये थे वह राजनीति के दलदल में कही खो से गए है।

सोमवार, 24 मई 2010

यूपीए का एक साल


यूपीए सरकार ने 22 मई को अपना दूसरे कार्यकाल का पहला जन्मदिन मनाया। वर्तमान हालात में सरकार के पास वैसे तो कहने के लिए बहुत कुछ नही था। मगर ऐसे मौकों पर ही कोिशश की जाती है की जनता को एक अच्छा सन्देश जाए। लिहाजा प्रधानमन्त्री ने देशभर के पत्रकारों के बेबाकी से जवाब दिए। सवाल भी कई तरह से थे। मसलन महंगाई से लेकर नक्सलवाद तक और विदेश नीति से लेकर भ्रष्टाचार तक प्रधानमन्त्री ने सबके जवाब दिए। मगर शायद जवाबों में वह बात नही जो अमूमन देखने को मिलती है। महंगाई के चलते जनता बेहाल है। नक्सलवाद से निपटने के लिए दो सूत्रीय नीति काम करती नही दिखाई दे रही है। सरकार में मन्त्री बेलगाम है और कुछ तो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे है। सरकार और संगठन कई मुददों के लेकर आमने सामने है। विदेश नीति अमेरिकी प्रेम से ओतप्रोत है। प्रधानमन्त्री ने खुशी इस बात की जताई को वैिश्वक आर्थिक तंगी के चुंगल से निकलने में हम कामयाब हो पाये। वह यह भी बताना नही भूले के ऐसा करने वालों में उनका देश का दूसरा स्थान है। नक्सलवाद को उन्होंने पहले के ही तर्ज पर गम्भीर खतरा बताया। पाकिस्तान के मामले में विश्वास की कमी को दूर करने के लिए उन्होंने बातचीत जारी रखने बात कही। अमेरिका के पिछल्गू से जुडे सवाल पर उनका कहना कि उसी नीति का समथर्न किया हो जिसका सीधा सम्बन्ध राश्ट्रीय हित से जुडा हो। सहयोगियों के एक दूसरे के विभाग के उपर टिप्पणी को उन्होन खराब परंपरा बताया। सराकर और संगठन के बीच किसी भी बात को लेकर कोई दूरियां नही है। विभिन्न मुददों पर यूपीए अध्यक्ष सोनियां गांधी से वो साप्ताहिक मुलाकात करते है। सीबीआई के दुरूपयोग पर प्रधानमन्त्री ने कहा कि हर मामले में सीबाआई ईमानदारी से अपना काम कर रही। कट मोशन के दौरान माया मुलायम के साथ आने को सीबीआई के दवाब को वह गलतफहमी कहकर टाल गए। 2 जी स्पेक्टम को लेकर भी उनका जवाब सन्तुश्ट न करने वाला था। बहरहाल इस साल की समात्ती में जो सबसे बडी उपलब्घी है वह है शिक्षा का अधिकार और प्रधानमन्त्री महमोहन सिंह का पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के 6 साल के कार्यकाल का रिकार्ड तोडना।

गुरुवार, 13 मई 2010

क्रिकेटवाणी


कभी कभी सोचता हूं कि क्रिकेट के प्रति इतना लगाव क्यों रखता हूं। आखिर क्या वजह है कि कई ना नूकुर के बाद भी घंटों टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट मैच देखता हूं। आखिरी बॉल तक आशावाद की दिया जलाए रखना कि शायद कोई चमत्कार हो जाए और हमारी टीम जीत जाए। यह जानते हुए भी ऐसा नामुमकिन है। मगर क्या करे हम भारतीयों ने क्रिकेट और खिलाडियों को ही सब कुछ मान रखा है। क्रिकेट का कोई भी रूप हो, टेस्ट एकदिवसीय या टी 20। हर बार हमने मैदान में जाकर जय बोलने में कोई कंजूसी नही की। मगर टी 20 वल्र्ड कम में भारतीय खिलाडियों के शर्मनाक प्रदशZन ने क्रिकेट प्रमियों को निराश किया। मैच के किसी भी क्षण यह महसूस नही हुआ कि भारतीय खिलाडी लय में है। कागजों के शेर उछाल भरी पिच पर ढेर हो गए। दुनिया की सर्वोत्तम टीम का प्रदशZन इस कदर होगा इसके बारे में किसी ने नही सोचा था। अब धोनी चाहे लाख बहाने बनाए सच्चाई यह है कि टीम में जीत के जज्बे का अभाव था। साउथ अफ्रीका को हराने वाली टीम एकाएक इस कदर बिखर जायेगी इसका अन्दाजा किसी को नही था। बहरहाल भारतीय कप्तान के मुताबिक आपीएल की रात्रीय पार्टीयां इसके जिम्मेदार थी। मगर मेरा मानना है कि धोनी के कुछ गलत फैसले भी हमारी हार के लिए कम जिम्मेदार नही। सबसे बडी गलती सुपर आठ के पहले मैच में ही हो गई। आस्ट्रेलिया से टॉस जीतने के बावजूद पहले फििल्डंग का निर्णय चौंकाने वाला था। जबकि ऐसा पिच में कुछ भी नही था कि शुरूआत के कुछ ओवरों में गेन्दबाजों को फायद मिले। धोनी की सारी रणनीति बल्लेबाजों के इर्द गिर्द थी। मगर मैच के बाद की स्थिति ऐसी थी न खुदा ही मिला, ना विशाले सनम, इधर के रहे, न उधर के हम। इस मैच में हरभजन सिंह के अलावा कोई भारतीय गेन्दबाज अपनी छाप नही छोड़ पाया। वार्नर और वाटसन की ओपनिंग जोडी ने भारतीय गेन्दबाजों की बिख्खयां उधेड कर रख दी। कहते है इंसान अपनी गिल्तयों से सीख लेता है मगर धोनी यहां ही मात खा गए। सुपर आठ के दूसरे मैच में फिर यह गल्ती दोहरायी गई। जवाब, मेजबानों ने मेहमानों की खातिरदारी में कोई कमी नही छोडी। मगर भारतीय दशZकों के सब्र का बंाध अब भी टूटा नही था। क्योंकि चमत्कार का सपना देखने की हमें आदत पड गई है। मगर यह क्या, बची खुची इज्जत लंकाई शेरों ने लूट ली। अब कोच गैरी कस्र्टन खिलाडियों की फिटनेस का रोना रो रहे है। उनके लिए में सिर्फ हतना कहना चाहूंगा । अब पछतावत होत क्या, जब चिडियां चुक गई खेत। दरअसल इसके लिए जिम्मेदार खिलाडियों से ज्यादा हम भी है। इनसे ज्यादा उम्मीद लगाना बेमानी है। क्योंकि खिलाडी हारे या जीते, उनकी मोटी आमदनी में इससे कोई असर नही पड़ता। और ऐसा कोई पहली बार भी नही हो रहा है। मगर सवाल यह कि ऐसा कब तक चलता रहेगा। आज कुछ कदम उठाने की तत्काल जरूरत है। अनफिट खिलाडियों को तुरन्त बाहर का रास्ता दिखाई जाए। केवल और केवल प्रदशZन को चयन का मापदण्ड बनाया जाए। भाई भतीजावाद को समाप्त किया जाए। नए खिलाडियों को मौका दिया जाए। आस्ट्रेलिया और हमारी टीम में बुनियादी फर्क यह है कि वहां खिलाडी कितना ही नामचीन क्यों न हो फिट नही है या लय में नही है टीम में शमिल नही हो सकता। मगर हमारे यहां इसका उल्टा है। जरा सोचिए एक अरब से ज्यादा की आबादी वाला देश, दुनिया का सबसे धनी बोर्ड बीसीसीआई ,दुनिया के बेहतरीन बल्लेबाज बावजूद इसके इस घटिया प्रदशZन का जवाब किसके पास है।

शनिवार, 8 मई 2010

कुपोषण मुक्त भारत कैसे बने

भारत के 46 फीसदी बच्चे आज भी कुपोषण का शिकार है। यह कहना है स्टेट ऑफ एशिया पेसिफिक चिलड्रन 2008 का। रिपोर्ट ने साफ शब्दों में कहा है कि अगर भारत में हालात तेजी से नही सुधरे तो मिलेनियम डेवलेपमेंट गोल को प्राप्त करने की भारत की वैश्विक प्रतिबद्धता धरी की धरी रह जायेगी। रिपोर्ट में कई पहलुओं की ओर इशारा किया गया है। ऐसी ही मिलते जुलते आंकडे राश्टीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से निकलकर आये है। मध्यप्रदेश कुपोषित बच्चों के मामले में सबसे अव्वल है। जरा सोचिए जिस उम्र में मानसिक विकास होना शुरू होता है उस उम्र में कुपोषण न सिर्फ बच्चों के सम्पूर्ण विकास में बाधक बनता है, बल्कि जीवन भर एक ज़िन्दा लाश की तरह जीने के लिए उन्हें मजबूर कर देता है। आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर की धूम देश में ही नही बल्कि विदेशों में भी है। वैिश्वक आर्थिक तंगी के दौरान चीन के बाद भारत ही वही देश है जिसकी विकास दर विपरीत परिस्थितियों में भी 7 फीसदी के आसपास रही। मगर इस विकास दर में इतराने से कुछ नही होगा। कुपोषण के पीछे कई कारण मौजूद है। जैसे गरीबी, खाद्य असुरक्षा, शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य सेवाओं का टोटा जिस कारण समय से ईलाज का न मिल पाना, साफ पीने के पानी की कमी, स्वच्छता का अभाव और कम उम्र में मां बन जाना जैसे अनेक कारण है। केन्द्र सरकार क पास इन कारणों के निवारणों के लिए योजनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है। मसलन मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, मीड डे मील, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान, राजीव गांधी शुद्ध पेयजल मिशन जैसी योजनाऐं प्रमुख है। बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कानून है। इसके अलावा एकीकृत बाल विकास योजना को इसी मकसद से शुरू की गई थी। इस योजना के तहत दिसम्बर 2009 तक 13 लाख 56 हजार आंगनवाडी स्थापित करने की केन्द्र से मंजूरी मिल गई है। जिसमें 11.4 लाख आंगवाडियों ने काम करना शुरू कर दिया है। इस लिहाज से देश का 79 फीसदी हिस्सा इन आंगनवाडी के सहारे कवर किया जा चुका है। आंगनवाडी सर्वे रजिस्टर के मुताबिक 2006 से 2009 तक बच्चों और महिलाओं की एक बडी आबादी तक इस योजना ने अपनी पहुंच बनायी है। मसलन
2006-07            5818539
2007-08            69644097
2008-09            72196568
2009-10            80000000 तकरीबन
बावजूद इसके बहुत बडा बदलाव आता नही दिखाई दे रहा है। इसी बात को ध्यान में रखकर योजना आयोग ने 27 दिसम्बर 2007 को डाक्टर सैय्यदा हामिद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसको कुपोषण मुक्त भारत कैसे बने, इसकी सिफारिश करने को कहा गया है। बहरहाल यह समिति की दो बैठकें ही हो पाई है। फरवरी 2008 और अगस्त 2008। रिपोर्ट कब आएगी इसपर तस्वीर अभी साफ नही। जबकि इस तरह के मामलों में समय सीमा अवश्य निर्धारित की जानी चाहिए। 1997 में  भारतीय प्रशासनिक स्टाफ विद्यालय द्धारा एक रिपोर्ट तैयार की गई। रिपोर्ट में कुपोषण मुक्त भारत के लिए एक राष्टीय रणनीति पर विचार करने की बात कही गई थी। इसी  रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र था कि कुपोषण के चलते राष्ट्रीय उत्पादकता सालाना आधार पर तो गिरता ही है साथ सकल घरेलू उत्पाद में इसका असर 3 से 9 फीसदी तक पडता है। आज सोचने वाली बात यह है कि  इतनी बडी योजनाओं के बावजूद हालात में सुधार क्यों नही। क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि यह योजनाऐं अपने लक्ष्य से भटक जाती है या भ्रष्टाचार के चुंगल में फंसकर दम तोड़ देती है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि 1993 में राष्ट्रीय पोषण नीति, 1995 कुपोषण से निपटने के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना तथा राष्ट्रीय पोषण मिशन स्थापित किया गया था। इतने बडे पैमाने मे काम के बावजूद अगर हालात नही सुधर रहे है तो सोचना होगा। सोचना हेागा की कागजों से बाहर निकलकर ये योजनाऐं क्या वाकई जमीन पर अपना रंग दिखा रही है अगर नही तो जवाब ढूंढना हेागा। सच्चाई यह है कि सेंसक्स, विकास दर और आर्थिक तरक्की का तब तक कोई मतलब नही जब तक भारत इस रोग से मुक्त नही हो जाता।

गुरुवार, 6 मई 2010

राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना

हर गांव में बिजली के बल्ब जलेंगे। गांव की झोपडियों में दूधिया प्रकाश फैलेगा। गलियों से अंधेरे का नामोनिशान मिट जायेगा। 2012 तक भारत का हर गांव जगमगाने लगेगा। ऐसा मुमकिन हो पायेगा राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना के कारण। 5 अप्रैल 2005 से यह योजना लागू हुई। लक्ष्य, 1 करोड 20 लाख गांवों केा बिजली से जोडना। कोशिश, 7 करोड़ 80 लाख परिवारों का अंधेरा दूर करना। सपना, 2 करोड़ 34 लाख बीपील परिवारों को मुफत बिजली के कनेक्शन देना । इसके लिए 11वीं पंचवषीZय योजना में 28000 करोड का आवंटन किया गया। योजना के मुताबिक 90 फीसदी अनुदान केन्द्र सरकार देती है। बाकी 10 प्रतिशत कर्ज राज्यो को आरईसी देती है। आरईसी इस कार्यक्रम की नोडल एजेंसी है। मौजूदा वित वर्ष में 5500 करोड का प्रावधान किया गया है।। खास बात यह है कि  यह राशि पिछले वर्ष 6000 करोड के मुकाबले कम है। जबकि उर्जा मन्त्रालय से जुडी स्थाई समिति ने इसे 9000 करोड़ करने की सिफारिश की है। अब नज़र योजना के सफरनामे पर। 1 मार्च 2010 के मुताबिक सरकार 1 लाख 97 हजार 26 परिवारों को बिजली के कनेक्शन मुहैया करा चुकी है।योजना के तहत राज्य सरकारो केा डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट सौंपनी होती है। रिपोट उस शर्त में शामिल की जाती है जब राज्य सरकारें 12 से 13 घंटे बिजली मुहैया कराने का वादा करें। मतलब केन्द्र सरकार पोल लगाकर तार खींच देगी।  बिजली देना राज्य सरकार का काम है। बहरहाल यह योजना मिशन 2012 तक अपने लक्ष्य को भेद पायेगी इसको लेकर कई सवाल है। मसलन कई राज्यों ने ग्रामीण विद्युतिकरण कार्यक्रम तैयार ही नही किया है। उपर से जमीन अधिग्रहण में हो रही देरी, समय से पर्यायरवण की मंजूरी न मिल पाना,  मानव संसाधन की कमी और सही बीपील सूची का न बन पाना जैसी समस्याऐं आम है। पर्याप्त बजट का आवंटन न होना भी इसकी राह में रोड़ा अटका रहा है। विद्युतिकरण समवर्ती सूची में नीहित है। लिहाजा इसके तहत निर्धारित किये गए लक्ष्य को प्राप्त करना केन्द्र और राज्य दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी है। योजना के बेहतर तेजी लाने के लिए त्री स्तरीय निगरानी तन्त्र का गठन किया गया है। जिला स्तर में ग्रामीण विद्युतिकरण पर नज़र रखने के लिए निगरानी तन्त्र बनाने के लिए राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया है। साथ केन्द्र के स्तर पर अन्तर मन्त्रालय समिति का गठन किया गया है।

ये शोर कुछ कहता है।

संसद, लोकतन्त्र का पहरेदार, 
देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था, 
देश के विकास की नींव यही रखी जाती है। देश के कोने कोने से चुने हुए प्रतिनिधि देश भर की समस्याओं को लेकर यहां अपनी आवाज बुलन्द करते है। जनता से जुड़े मुददों पर सार्थक बहस इसी जगह होती है। कानून बनाने की ताकत भी इसी संसद के पास है। मगर आज यहां हालात बदले बदले नज़र आ रहे है। सदन में आए दिन होने वाले हो हंगामें से अब जनता त्रस्त हो गई है। आखिर किसके लिए है संसद। क्या है इसका उद्देश्य। क्या संसद आम आदमी के प्रति नही है। इसमें कोई दो राय नही की संसदीय बहस का स्तर लगातार गिर रहा है। सांसद रचनात्मक बहस से ज्यादा आपसी टोकाटोकी में ज्यादा मशगूल नज़र आते है। संसद में आए दिन हंगामा होना कोई नही बात नही है। सच्चाई यह है कि राजनीतिक दलों ने इसे एक सियासी हथियार के तौर पर अपना लिया है। वैसे तो सदन में सांसदों के लिए कई नियम बनाये गए है। मगर इसका अनुसरण कोई नही करता। मसलन कोई सदस्य अगर भाषण दे रहा हो, तो उसमें बांधा पहुचाना नियम के खिलाफ है। सांसद ऐसी कोई पुस्तक, समाचार पत्र या पत्र नही पडे़गा जिसका सभा की कार्यवाही से सम्बन्ध न हो । सभा में नारे लगाना सर्वथा नियम विरूद है। सदन में प्रवेश और निकलते वक्त अध्यक्ष की पीठ की तरफ नमन करना नियम के तहत है। अगर कोई सभा में नही बोल रहा हो तो उसे शान्ति से दूसरे की बात सुननी चाहिए।  भाषण देने वाले सदस्यों के बीच से नही गुजरना चाहिए। यहां तक कि कोई भी सांसद अपने भाषण देने के तुरन्त बाद बाहर नही जा सकता। हमेशा अध्यक्ष को ही सम्बोधित करना चाहिए। नियम के मुताबिक सदन की कार्यवाही में रूकावट नही डालनी चाहिए। सदन की कार्यवाही में रूकावट नही डालेगा। इन सारे नियमों के लब्बोलुआब को कुछ अगर एक पंक्ति में समझना हो तो सदन में अध्यक्ष के आदेश के बिना पत्ता भी नही हिल सकता। दु:ख की बात तो यह है कि ऐसे कई नियम मौजूद है लेकिन इन नियमों केा मानने वाला कोई नही। राजनीतिक चर्चाऐं कई बार अखाड़ों में तब्दील हो जाती है। आज इन सारे नियमेंा की अनदेखी एक बड़े संसदीय संकट की ओर इशारा कर रही है। क्या इसका उपाय है हमारे पासर्षोर्षो आज 100 दिन संसद का चलना किसी सपने की तरह है। कई जरूरी विधेयक बिना बहस के पास हो रहे है। सभा की कार्यवाही से कई सांसद अकसर नदारद रहते है। कभी कभी तेा कोरम पूरा करने के लिए सांसद खोज के लाने पड़ते है। क्या दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र की तस्वीर ऐसी होनी चाहिए। आज सासन्द असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करने से भी नही चूक रहे है। अब समय आ गया है कि जनता `काम नही तो भत्ता नही` और `जनप्रतिनिधी को वापस बुलाने के अधिकार` को कानूनी रूप प्रदान करने के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव बनाये।


मंगलवार, 4 मई 2010

अनिवार्य मतदान कितना जरूरी

वोट देना किसी भी नागरिक का अधिकार है लिहाजा इसे अनिवार्यता के दायरे में लाना कितना व्यवहारिक होगा। इन दिनों राजनीति के गलियारें में यह मुददा ज़िरह का विशय बना हुआ है। लोगों की राय बटी हुई है। कुछ लोगो का तो यहां तक कहना है कि चुनाव के दौरान किये हुए वायदों को भी कानून जामा पहनाना चाहिए। बहरहाल इस बहस का जन्म गुजरात विधानसभा द्धारा पारित गुजरात स्थानीय प्राधीकरण संशोधन कानून 2009 जिसमें शहरी निकाय और पंचायत चुनावों में मत डालने को अनिवार्य बनाया गया था से शुरू हुई। फिलहाल यह विधयेक राज्यपाल ने गुजरात सरकार को वापस लौट दिया है। वही लोकसभा में कांग्रेस के सांसद जेपी अग्रवाल द्धारा लाये गए अनिवार्य मतदान विधेयक 2009 पर चर्चा हुई। चर्चा के दौरान ज्यादातर राजनीतिक दल इस बात पर सहमत दिखे की गिरते मतदान प्रतिशत को सम्भालने के लिए मतदान को अनिवार्य बनाना जरूरी है। इस देश में 75 करोड़ मतदाता है। जिनमें से सिर्फ 60 फीसदी ही अपने मत का चुनाव के दौरान इस्तेमाल करते है। बस यही बात भारतीय लोकतन्त्र के लिए एक मुश्किल सवाल है कि आखिर क्यों लोग चुनाव के दौरान अपना वोट डालने नही आते। क्या जनमानस की अदालत में राजनीतिक दलों की विश्वसनियता कठघरे में खडी है। क्या लोकतन्त्र के सबसे बडे उत्सव में बड़ते बाहुबल और धनबल ने लोगों को निराश किया है। क्या मतदाता सूचियों में भारी गडबडियां गिरते मतदान का कारण है। क्या जनता और जनप्रतिनीधि के बीच की दूरियां इसके लिए जिम्मेदार है। क्या यह जानना जरूरी नही है कि कौन वोट देने आता है, कौन नही। क्या भारतीय मतदाता जनप्रतिनीधियों के बदलते आचरण के चलते अपने को ठगा महसूस करता है। यह कुछ ऐसे सवाल है जिनका जवाब ढ़ूंढना आज जरूरी है। आंकडे इस बात की गवाही देते है की ज्यादा वोट प्रतिशत का मतलब सत्ताधारी दल के खिलाफ होता है। पहले लोकसभा चुनाव से लेकर 15वी लोकसभा के मतदान प्रतिशत पर नज़र डाली जाए तो पता चलता है कि चुनाव प्रतिशत सुधरने के बजाय गिरा है। लोकसभा के इतिहास में 1984 में 63.56 प्रतिशत मतदान हुआ जो अब तक का एक रिकार्ड है। गौरतलब है कि यह चुनाव इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ जिसमें पुरूश मतदाताओं की संख्या 68.18 प्रतिशत और महिलाओं की संख्या 58.60 प्रतिशत रही। यहां गौर करने की बात यह भी है बीते 15 लोकसभा चुनाव में इतनी बडी तादाद में पुरूश और महिला मतदाता वोट देने के लिए घर से नही निकले। बहरहाल इन प्रयासों पर चुनाव आयोग यह कहकर पानी फेर चुका है कि यह कदम अव्यवहारिक है। इसमें एक पहलू 49 ओ से भी जुडा हुआ है। चुनाव आयोग इस प्रावधान को लागू करने से जुडी सिफारिश सरकार को दे चुका है। बहरहाल यह सुझाव सरकार के पास विचाराधीन है।

सोमवार, 3 मई 2010

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन

राष्ट्रीय विकास परिषद की 53वी बैठक में सारी माथापच्ची इस बार पर थी कि देश में कृषि उत्पादन को कैसे बढ़ाया जाए। गिरती उत्पादकता और बढती खाघान्न की मांग ने सरकार के माथे पर बल डाल रखा था। सरकारों के सामने बढती आबादी के पेट भरने की चुनौति थी। लम्मी जद्दोजेहद के बाद नामकरण हुआ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन का। मिशन के तहत अगले पांच सालों में खाघान्न के उत्पादन को 20 लाख टन तक बढाने का लक्ष्य रखा गया है। इसमें चावल का उत्पादन 1 करोड़ टन, गेहूं का 80 लाख टन और दालों का उत्पादन 20 लाख टन तक करने का लक्ष्य है। मिशन के तहत 17 राज्यों के 312 जिलों को चुना गया। जिसमें चावल के लिए 136 जिले, गेहूं के लिए 141 और दालों के लिए 171 जिलों चयन किया गया। इतना ही नही, गेहूं के लिए 13 मिलियन हेक्टेयर ,चावल के लिए 20 मिलियन हेक्टेयर दालों के लिए 22 मिलियन टन हेक्टेयर अतिरिक्त जमीन इस्तेमाल में लायी जा रही है। मौजूदा वित्त वशZ में असम के पांच और झारखण्ड के 10 नए जिलों को इस मिशन से जोड़ गया। कुल मिलाकर मिशन 2012 तक सरकार इस पर 4882.48 करोड का खर्च करेगी। पहली बार उत्पादन बड़ाने के लिए सरकार किसानों तक खेती से जुडी नयी तकनीक पहुंचा रही है। किसानों को अच्छे बीज के साथ साथ कृशि सम्बन्धित उपकरणों मुहैया कराये जा रहे है। अच्छा उत्पादन करने वाले जिलों को प्रोत्सहान देने के बात कही गई है। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए निगरानी तन्त्र का गठन किया गया है। मगर सरकार की यह योजना धराशायी होती दिखाई दे रही है। बीते तीन सालों में दाल उत्पादन से जुडे 171 जिलों पर नज़र डाली जाए तो योजना की हकीकत खुद पर खुद बयॉ हो जाती है। दिसम्बर 2009 तक आवंटित किए 1014.35 करोड़ के मुकाबले 369.57 करोड़ ही खर्च हो पाये। मतलब साफ है जब योजना के लिए आवंटित पैसा ही खर्च नही हुआ तो लक्ष्य तक पहुंचने का सपना देखना बेमानी लगता है। योजना को पूरा होने में अभी 2 साल बाकी है। देखना दिलचस्प यह होगा कि क्या सरकार इस लक्ष्य के आसपास पहुंच पाती है।

रविवार, 2 मई 2010

चुनाव सुधार

चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर धरातल में इसे लेकर राजनीतिक दलों ने कभी कोई गम्भीरता नही दिखाई। यही वजह है कि चुनाव सुधार आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक सीमित रह गये है। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते है। मगर नतीजा वही ढॉक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है मगर राजनीतिक दलों के नाक भैं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। नतीजा यह होता है कि कानून तोडने वालों की लम्बी फौज देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने में लग जाती है जो दुनिया के सबसे बडे लोकतन्त्र पर एक बदनुमा दाग है। सच पूछिए तो चुनाव सुधार को लेकर भी समितियों का खबू खेल हुआ। तारकुण्डे से लेकर दिनेश गोस्वामी समिति तक, एनएन वोहरा से लेकर इन्द्रजीत गुप्ता समिति तक, सिफारिशों की एक लंबी फेहरिस्त सरकार के पास है मगर इस पर कुछ खास अभी तक नही हो पाया है। इस बीच चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेण्डा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर  सरकार और उसका तन्त्र कुण्डली मारकर बैठा है। वो तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने जनप्रतिनिधीयों  के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो हमें दिया वरना नेता लोग कभी नही चाहते मसलन उनकी िशक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्तियों के बारे में जानकारियां सार्वजनिक हो। नेताओं की जमात कभी नही चाहेगी की उनकी कमजोर नब्ज़ जनता के हाथ लगे। आजकल  मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौट दिया। इसमें मतदाता को `इनमें से काई नही` का अधिकार देने का भी प्रावधान है। वही लोकसभा में निजि विधेयक `अनिवार्य मतदान कानून 2009` में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिन्ता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नज़र आ रहा है। मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला इसे अव्यवहारिक करार दे चुके है। बहरहाल सरकार को राजनीति में बड़ते अपराधीकरण को रोकने जनता और जनप्रतिनिधियों के बीच दूरी पाटने, राजनीति में एक स्वस्थ्य माहौल बनाने, आयाराम गयाराम की परंपरा को रोकने चुनावों में धनबल और बाहुबल को रोकने जैसे बडे कदम उठाने पड़ेंगे। जमानत राशि बड़़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होने वाला। जरूरत इस बात की सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आमसहमति बनाये और इसे लागू करे।