बुधवार, 24 जुलाई 2013

गरीब के आंकलन की सोच में इतनी गरीबी क्यों ?

कौन गरीब? कितने गरीब? गरीब वह नही है जो प्रतिदिन अपने दिनचर्या के लिए शहरों में 33.30 रूपया और गांव में 27.20 रूपये खर्च कर सकता है। सरकार ने गरीबी का यह नया आंकड़ा जारी किया है। 2004-05 के मुताबिक देश में गरीब की संख्या 37.25 फीसदी थी। अब यह घटकर 22 फीसदी के आसपास हो गया। यह चमत्कार यूपीए सरकार के 7 साल की अवधि में हुआ है। इससे पहले योजना आयोग ने गांव में 26 रूपये और शहर में 32 रूपये कमाने वाले को गरीब नही माना था। यह दरियादिली योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जमा हलफनामे में दिखाई थी। गौर करने की बात यह है कि यह हलफनामा पहले के 15 रूपये गांव में और 20 रूपये शहरों में खर्च करने की क्षमता में बदलाव करके किया गया है। लगता है आज हमारे नीतिनिर्माताओं की सोच गरीबों से ज्यादा गरीब हो गई है, इसलिए तो इस तरह का आंकलन निकलकर सामने आया। क्या यह गरीब के साथ सहानुभूति जताने के बजाय उसका सार्वजनिक अपमान है। अब जरा रिपोर्ट में आंकड़ेबाजी के मकड़जाल को समझते हैं। इसके मुताबिक एक दिन में एक आदमी प्रतिदिन अगर 5.50 रूपये दाल पर, 1.02 रूपये चावल रोटी पर, 2.33 रूपये दूध पर, 1.55 रूपये तेल पर, 1.95 रूपये साग- सब्जी पर, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्य खाद्य पदार्थो पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। साथ में एक व्यक्ति अगर 49.10 रूपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नही कहा जाएगा। योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवाओं पर 39.50 रूपये प्रतिदिन खर्च करके आप स्वस्थ्य रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च कर आप शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। अगर आप प्रतिमाह 61.30 रूपये और 9.6 रूपये चप्पल और 28.80 रूपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं हैं। आयोग ने यह डाटा बनाते समय 2010-11 के इंडस्टीयल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और सुरेश तेंदुलकर कमिटि की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का हिसाब किताब दिखाने वाल रिपोर्ट को आधार बनाया है। सवाल उठता है की गरीब के आंकलन में नीतिनिर्माताओं की सोच इतनी गरीब कैसे? क्या यह इस देश के गरीबों के खिलाफ साजिश तो नही। कहीं उन्हें सरकारी योजनाओं के अलग करने की कोशिश तो नही। अभी जो व्यवस्था है उसके तहत योजना आयोग गरीबी रेखा के लिए मापदंड तैयार करता है और राज्य सरकार उसके आधार पर गरीबों का चयन करती है। राज्य सरकारें केन्द्र पर हमलावर हैं कि उनके यहां गरीबों का संख्या ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर बिहार में जारी बीपीएल कार्ड की संख्या 1.40 करोड़ है जबकि योजना आयोग सिर्फ 65.23 लाख लोगों को ही गरीब मानता है और इसी आधार पर बिहार को केन्द्रीय पूल से पीडीएस के लिए खाद्यान्न का आवंटन होता है। इसी तरह मध्यप्रदेश में 60 लाख लोग गरीब है जबकि योजना आयोग 41.25 लोगों को गरीब मानता है। इसके अलावा अब तक पूरे देश में 1.80 करोड़ से ज्याद फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके हैं। दुख की बात तो यह है कि राज्यों ने 17.5 फीसदी ऐसे लोगों को बीपीएल राशन कार्ड जारी कर रखें है जो अमीर हैं और 23 फीसदी जरूरतमंदों के पास राशन कार्ड उपलब्ध नही है। सवाल यह कि की गरीबों की इस सूची में भारी हेरा फेरी के लिए कौन जिम्मेदार है। जरूरत है कि आंकड़ों के भ्रमजाल से निकलकर नीतिनिमार्ताओं को गरीबी मांपने का एक आदर्श और व्यवहारिक पैमाना अपनाना चाहिए। गरीब के आंकड़ों का आलम यह है कि जितने मुंह उतनी बातें। एनएसएसओ के मुताबिक 27.5 फीसदी तेंदुलकर समिति 37.2 फीसदी, सक्सेना समिति 50 फीसदी, अर्जुन सेन गुप्ता समिति 78 फीसदी, विश्व बैंक 42 फीसदी और एशियाई विकास बैंक 41.5 फीसदी को हमारे मुल्क में गरीब मानता है। इन सब आकंडों का स्रोत नेशनल सैंपल सर्वे है मगर गरीबी मापने का मापदंड अलग है। मसलन विश्व बैंक का मापदंड 1.25 डालर है। क्या सरकार सही आंकड़ा अपनाने से नही हिचकिचा रही है। क्योंकि यह उसकी समग्र विकास के नारे की हवा निकाल देगा। एक बात तो सच जान पड़ रही है कि हमारे देश में आर्थिक सुधार के इस दौर में गरीबी घटने के बजाय बढ़ रही है। दरअसल विकास दर का उलझा हुआ गणित जितना बताता है उससे कही अधिक छिपाता है। जबकि गरीबी न घटने के पीछे सीधा कारण सामाजिक क्षेत्र में कम खर्च है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 फीसदी जनता स्वास्थ्य का खर्च अपने जेब से उठाती है। इसका मुख्य कारण है कि स्वास्थ्य क्षेत्र हमारा खर्च केवल 1.04 फीसदी है जो विकासशील देषों के 3 फीसदी और विकसित देशों के 5 फीसदी से बहुत पीछे है। ब्रिटेन की एक प्रतिष्ठित पत्रिका लेंसेट के मुताबिक भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च के चलते 3.70 करोड़ सालाना लोग गरीबी हो जाते है। इसलिए जरूरी है की शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक विकास और बुनियादी ढांचे में न सिर्फ खर्च बढ़ाया जाए बल्कि जारी किए गए पैसे का बेहतर इस्तेमाल भी हो। हमारे देश में सब्सिडी का बड़ा भाग जरूरमंदों तक नही पहंुच पाता। 2010-11 के आर्थिक समीक्षा की मानें तो 51 फीसदी पीडीएस राशन कालेबाजार में बिक जाता है। उत्तरपूर्व में यह आंकड़ा तो 90 फीसदी के आसपास है। अब सवाल है कि इसे रोका कैसे जाए। कुछ सुझाव सामने है जिसमें सबसे उपर सीधे जरूरत मंदों के खातों में नकदी का आहरण है। इसपर काम भी चल रहा है। ब्राजील जैसे देशों में यह व्यवस्था कुछ शर्तों के साथ लागू भी है। ब्राजील में भोलसा परिवार कार्यक्रम के नाम से इसे चलाया जाता है। इसके तहत पात्र व्यक्तियों को बच्चों को स्कूल भेजने की अनिवार्यता के साथ साथ टीकाकरण कराना भी आवश्यक कर दिया है। इसका नतीजा भी निकलकर सामाने आया। ब्राजील में 2003-2009 के बीच 2 करोड़ लोग न सिर्फ गरीबी रेखा से निकलकर बाहर आये बल्कि उनकी कमाई में 7 गुना बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। सीधे नकदी आहरण एक अच्छा विकल्प है लेकिन संभव कैसे होगा। हमारे देश में 40 फीसदी आबादी के पास ही बैंक खाते उपलब्ध है। लिहाजा सरकार को बैंकों के विस्तार में तेजी से कदम बड़ाना होगा। साथ की संतुलित विकास की नीव रखनी होगी। सिर्फ उच्च विकास दर का सपना दिखाकर काम नही चलते वाला। ऐसी नीतियों को लागू करने की आज दरकार है जो किसी भी व्यक्ति को समाज में सम्मान से जीने का अवसर प्रदान करे। 12वीं पंचवर्षिय योजना एक बेहतर अवसर है जब हम अपनी मौजूदा नीतियों का आंकलन कर उसमें जरूरी बदलाव कर उसे बेहतर क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये। इतना ही नही इस देश में खर्च और परिणाम को लेकर भी एक ईमानदार बहस की शुरूआत होनी चाहिए। आखिर में वर्तमान व्यवस्था में बिना बदलाव किए हम अगर खाद्य सुरक्षा कानून को पारित करते है तो इसका हश्र भी दूसरी योजनाओं की तरह की होगा।
जो भूख मिली सौ गुना बाप से अधिक मिली
अब पेट फैलाये फिरता है, चैरा मुंह बायें फिरता है,
वो क्या जाने आजादी क्या, आज देश की बातें क्या।

सोमवार, 22 जुलाई 2013

समाजिक योजनाओं का निगरानी तंत्र फेल

मीड- डे मील योजना का देश भर में क्या हाल है। मीडिया के जरिये आज सबके सामने है। इस योजना को इस साल 2012-13 में 13250 करोड़ का आवंटन किया गया है। सरकार आंकड़ों के मुताबिक 12 करोड़ बच्चे प्रतिदिन इससे लाभान्वित होते है। 2002 में शुरू हुआ सर्वशिक्षा अभियान की कामयाबी के पीछे मीड डे मील योजना का अहम योगदान हैं। न सिर्फ बच्चे स्कूल से जुड़े बल्कि स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की तादाद में भारी कमी आई। यह योजना भारत की महत्वकांक्षी योजनाओं में से एक है। जिस देश की 48 फीसदी आबादी कुपोषण का शिकार है, उस देश के लिए ऐसी योजनाऐं किसी वरदान से कम नही। हर बार केन्द्र सरकार सालाना आवंटन बढ़ाकर अपनी पीठ थपथपाती है। मगर बात योजना के बेहतर क्रियान्वयन की आती है तो जिम्मेदारी राज्य सरकार के जिम्मे कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती है। मानो बजट और गाइडलाइन बनाकर वह आंख मंूद कर बैठ जाती है। जरा सोचिए जो सरकार करदाताओं के पैसे की बर्बादी रोक नही सकती उसे बने रहने का क्या हक है। हाल ही में बिहार के छपरा में 23 बच्चों की मौत ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। क्या दोष था उन बच्चों का? बस यही कि उन्होने किसी गरीब के घर में जन्म लिया। मीड डे मील योजना में अनिमियिताओं का मामले पहले भी दर्जनों बार सामने आए है। मगर सरकार हर बार जांच और कार्यवाही का भरोसा दिलाकर बैठ जाती। अगर किसी घटना में सख्ती से पेश आया गया होता  तो इस योजना की खामियों को दूर किया जा कसता था। एमडीएम योजना केन्द्र और राज्य की संयुक्त जिम्मेदारी के तहत चलाई जाती है। केन्द्र सरकार का अंशदान 75 फीसदी और राज्यों का योगदान 25 फीसदी है। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए यह 90ः10 है। केन्द्र सरकार द्धारा दिए गए बजट का 1.8 फीसदी निगरानी व्यवस्था पर खर्च होना चाहिए। मगर निगरानी के नाम पर कुछ नही होता। अकेेले केन्द्र सरकार ने 41 संस्थान मीड डे मील योजना के लिए नियुक्त किए है। इनमें दो संस्थानों जामिया मिलिया इस्लामिया और एएन सिन्हा इंस्टीटयूट आफ सोशल स्टडीज ने अपने अध्यन में यह पाया कि बिहार में बच्चों को दोपहर का भोजन देने की व्यवस्था बेहद दयनीय है। केन्द्र सरकार ने कार्यवाही के लिए यह रिपोर्ट राज्यों को भेज दी। राज्य ने क्या किया कोई नही जानता। इसके अलाव योजना आयोग और सीएजी ने इस योजना में तमाम खामियां गिनाई। मगर सुधार के नाम पर केवल लीपापोती हुई। योजना आयोग ने साफ किया की योजना के दिशानिर्देशों के मुताबिक न तो जनता की भागीदारी है, न स्वास्थ्य महकमे का जुड़ाव, यहां तक की निगरानी तंत्र लापता है। हां कागजों में भोजन से लेकर निगरानी के मानकों के लेकर लम्बी चैड़ी बातों का जिक्र जरूर है। मसलन 1 से पांच तक के कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को 100 ग्राम चावल या आटा, 20 ग्राम दाल, 50 ग्राम हरी सब्जी और 5 ग्राम फैट दिया जाएगा। कक्षा 6 से 8 के बच्चों को 150 ग्राम चावल, 30 ग्राम दाल, 75 ग्राम सब्जी और 7.5 ग्राम दाल दिया जाना है। कहा जाता है इससे बच्चों को 200 ग्राम प्रोटीन मिलेगा, 700 ग्राम कैलोरी मिलेगी। साथ ही समय समय पर आयरन, फौलिक ऐसिड और विटामिन ए की गोलियां भी देने का प्रावधान है। एमडीएम के दिशानिर्देशों के तहत एक मजबूत निगरानी व्यवस्था बनाया जाना जरूरी है। जिसमें राज्य सरकार के अधिकारी, फूड और न्यूट्रीशन बोर्ड, न्यूट्रीशन एक्सपर्ट निगरानी संस्थान और विद्यालय प्रबंधन समिति शमिल होंगे। पूरे देश में आपको यह व्यवस्था सिर्फ कागजों में मिलेगी। इसके अलावा बच्चों को पका भोजन परोसने से पहले तीन लोगों की समिति जिसमें संबधित स्कूल का शिक्षक भी शामिल होता है को इसकी जांच करना आवश्यक है। ज्यादातर जगहो में इस प्रक्रिया को नही अपनाया जाता। यह लापारवाही तब है जब शिशु मृत्यु दर और कुपोषण को लेकर हम पूरे विश्व में बदनाम हैं। इससे केन्द्र और राज्य सरकारों की गंभीरता पता चलती है। यकिन मानिए यह हाल केवल मीड डे मील योजना का नही, लगभग देश भर में चलाई जा रही सभी योजनाओं का है। केन्द्र सरकार द्धारा संचालित सार्वजनिक वितरण प्रणाली और एकीकृत बाल विकास योजना का भी कमोबेश यही हाल है। इन योजनाओं में भी मीड डे मील की तरह भ्रष्टाचार चरम पर है। इसमें आज भी कमी नही आई है। यानि बिहार की छपरा जैसे घटना आगे नही होगी ऐसा मानने वाले जल्द ही गलत साबित हो जाऐंगे। क्योंकि सरकारी निकम्मेपन की इंताह बार बार ऐसे दिलदहलाने वाले हादसों को दोहराएगी।  वह इसलिए क्योंकि सरकारी स्कूल में नेताओं और बाबूओं के बच्चे नही पड़ते। दरअसल पूरा सिस्टम इतना सड़ चुका है की सुधार की आस दूर दूर तक नजर नही आती। सच्चाई यह है कि आज शिक्षक स्कूलों में पढ़ाने के सिवाय बाकि सब काम कर रहा है। मीड डे मील की व्यवस्था, जनगणना, चुनावी डयूटी, राशन उठाने की जिम्मेदारी और खाने की गुणवत्ता सब में शिक्षकों को जोड़ा गया है। अब सवाल उठता है की क्या इन समस्याओं का कोई समाधान है? या बिना जवाबदेही के जनता की कमाई का गाढ़ा पैसा पानी की तरह बाहाया जाता रहेगा। आज जरूरत है कि सभी सामाजिक योजना में सोशल आडिट अनिवार्य किया जाए। निगरानी व्यवस्था को दुरूस्त किया जाए। हर स्तर पर जवाबदेही तय की जाऐं। जनता की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। भारत योजनाओं को बनाने में नंबर 1 ह,ै मगर बात लागू कराने की हो तो सबसे फिसडडी देश है। मीड डे मील विश्व का भूखमरी के मददेनजर सबसे बड़ा कार्यक्रम है। क्या अभिभावकों को प्रशिक्षण देकर तैयार किया जा सकता? इससे खाने की गुणवत्ता पर नजर रखी जा सकेगी। निगरानी व्यवस्था के खर्च का जिम्मा सरकार ले। अब समय आ गया है की देश में आउटले बनाम आउटकम की ईमानदार बहस हो। जिम्मेदारी, जवाबदेही के साथ जैसे कार्यो को लागू करना होगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आजतक किसी जनप्रतिनिधि ने मीड डे मील नही चखा होगा। अगर चखा होता तो देश भर से इतनी खराब रिपोर्टे नही आती। किसी भी योजना का क्रियान्वयन हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है। जिसका समाधान हम आज तक नही खोज पाऐं है। क्योंकि हम सभी समस्याओं का समाधान कानूनों में खोजते हैं। कार्यवाही के नाम पर जांच समिति गठित करने से लेकर सस्पेंशन तक के थके हुए उपाय करते हैं। एक उदाहरण से इसे आसानी से समझा जा सकता है। सरकार ने इस साल सर्व शिक्षा अभियान को 27258 करोड़ का आवंटन किया है। एमडीएम के बजट को मिलाकर यह होता है 41508 करोड़। इसमें राज्यों का हिस्सा शामिल नही है। इन दोनों योजना से आप बच्चों को स्कूल से जोड़ने और कुपोषण को रोकने का काम करना चाहते थे। इतने सालों के बाद नतीजों के नाम पर क्या है सामने। प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता बेहद खराब है। कुपोषण की स्थिति में सुधार नही है और एमडीएम खाकर बच्चे मर रहे है, बीमार हो रहे है। सवाल उठता है की हजारों करोड़ खर्च करने के बाद हमें मिला क्या? किस भारत निमार्ण की हम बात कर रहे है? आज देश की आजीविका सुरक्षा, उर्जा सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा आन्तरिक सुरक्षा और पर्यायवरण सुरक्षा की क्या स्थिति है? किसी भी देश के सर्वसमावेशी विकास के लिए यह जरूरी है। मगर इन पांचों मानदंडों में भारत बहुत पीछे है। सरकारें भले ही आल इज वेल का नारा देते रहें मगर जमीनी हालात बिलकुल जुदा है। अगर समय रहते इनमें सुधार नही हुआ तो आने वाले समय में हालात और खराब होंगे।

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

चुनाव सुधार के बिना भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर अंकुश लगाना मुमकिन नही?

सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक लगाने के लिए ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अब किसी भी कोर्ट से दो या उससे अधिक साल के लिए दोषी ठहराया गए व्यक्ति चुनाव नही लड़ पाऐंगे। कोर्ट ने तीन महिने के अपीन के प्रावधान को भी खत्म कर दिया है। यहां तक की जेल से भी चुनाव लड़ने पर मनाही हो गई है। इसमें राजनीतिक दल नाक भौं सिकोडेंगे। हो सकता है कानून लाकर या पुर्नविचार याचिका दायर कर इस फैसले को चुनौति दी जाए। मगर राजनीतिक दलों की विश्वसनियता को कोर्ट का यह करारा झटका है। इतना ही नही हाल ही में बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे ने लोकसभा चुनाव में 8 करोड़ खर्च की बात क्या कही, चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस थमा दिया। मगर इस बात ने किसी को चैंकाया नही। इस देश में हर कोई जानता है की विधानसभा और लोकसभा चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। यह बात दीगर है की चुनाव आयोग ने खर्च की एक सीमा तय की है मगर खुद चुनाव आयोग जानता है कि जो खर्च की सीमा उन्होने तय की है उससे आज जिला पंचायत का चुनाव भी नही जीता जा सकता। चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई प्रबंध नही कि वह चुनाव संबंधी खर्च का सही ब्यौरा जुटा सके। देश में फल फूल रहे भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण भी चुनावी प्रक्रिया में अंधाधंुध पैसे का इस्तेमाल है। आज गांव के सरपंच के चुनाव में भी लाखों रूपये पानी की तरह बहाये जा रहे है। जरा सोचिए जो लाखों करोड़ों खर्च कर चुनाव जीतते है क्या वह सार्वजनिक जीवन में ईमारदारी और सुचिता का भाव रखेंगे? यही कारण है कि केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत जानकारी देने की बात कही जो सारे राजनीतिक दल एक सुर से इसके विरोध में आ गए। विडम्बना देखिए की जिन राजनीतिक दलों ने इस कानून को ऐतिहासिक बताते हुए संसद में पारित किया वह खुद इसके दायरे में आने से डर रहे है। विरोध के पीछे तमाम कुतर्क दिए जा रहें है। सच्चाई यही है कि चुनावी चंदा भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत है। बस इसी को राजनीतिक दल जनता के सामने नही लाना चाहते। अगर राजनीतिक दल भ्रष्टाचार को लेकर इतने गंभीर है तो उन्हें सीआईसी के इस फैसले का स्वागत करना चाहिए। आदर्श स्थिति तो यह होती की राजनीतिक दल स्वयं इससे जुड़ी जानकारी जनता के सामने रखते जो की सूचना के अधिकार कानून का प्रमुख उददेश्य है। इसलिए अविलंब इस देश में चुनाव सुधार की जरूरत है। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर हमेशा सहमति जताते हैं, मगर सही मायने में चुनाव सुधार को लेकर कोई भी राजनीतिक दल प्रतिबद्ध नही। लोकपाल के लिए हुए जनआंदोलन के दौरान अन्ना ने राइट टू रिकाल और राइट टू रिजेक्ट की ओर संकेत कर चुनाव सुधारों की बरसों रूकी बहस को एक नया आयाम जरूर दिया है। सोचिए एक लोकतंत्र में यह कैसे मान्य होगा कि गंभीर अपराधों में लिप्त व्यक्ति देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने का काम कर रहा है। अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों से परहेज करें। हमारे देश में चुनाव सुधार पर बहस लगभग तीन दशक से ज्यादा पुरानी है। सरकार के पास सिफारिशों की एक लम्बी फेहरिस्त है। मगर जनप्रतिनिधित्व काननू 1951 में बदलाव करने की जहमत किसी ने नही उठाई। सुधारों की वकालत हर दल की जुबां पर है, मगर सवाल यह की इसे धरातल पर उतारेगा कौन। जबकि इसके लिए अब तक आधा दर्जन से ज्यादा समितियों की सिफरिशें सरकार के पास मौजूद हैं। 1975 तारकुण्डे समिति, 1990 में दिनेष गोस्वामी समिति, 1993 एनएन वोहरा समिति और 2001 में इंद्रजीत गुप्ता समिति का गठन चुनाव सुधार को उद्ेदश्य बनाकर किया गया था। इसके अलावा विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के साथ विधि मंत्रालय से जुड़ी स्थाई समिति की रिपोर्ट भी सरकार के पास मौजूद हैं। लगता है यह सिफारिशें आज भी सिर्फ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रही है। दरअसल चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर जमीन में इसे लेकर कुछ नही हुआ। यही वजह है कि चुनाव सुधार से जुड़े मुददे आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक ही सिमट कर रह गए हैं। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते हैं। मगर नतीजा वही ढांक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी- कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है, मगर राजनीतिक दलों के नाक भौं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। हालांकि चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेंडा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर सरकार और उसका तंत्र कंुडली मारकर बैठा है। अगर आज हमें जनप्रतिनिधियों के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से ही संभव हो पाया।  वरना नेताओं की जमात को यह बर्दाश्त नही होता कि कोई उनकी शिक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्ति के बारे में जाने। आजकल  मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर देष में बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया, मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौटा दिया। इसमें मतदाता को ‘इनमें से कोई नही‘ का अधिकार देने का भी प्रावधान था। वही लोकसभा में लाए गए एक निजि विधेयक ‘अनिवार्य मतदान कानून 2009‘ में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिंता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नजर आ रहा है। खुद पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला इसे अव्यवहारिक करार दे चुके है। मगर वर्तमान में चुनौतियां जबरदस्त है। 27 अक्टूबर 2006 को मुख्य चुनाव आयुक्त भारत के प्रधानमंत्री को खत लिखकर कहते हैं कि अगर जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में बदलाव नही किया गया तो वह दिन दूर नही जब लोकसभा और विधानसभा में दाउद इब्राहिम और अबू सलेम जैसे लोगों के पहुंचने का गंभीर खतरा है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट ऐसे गंभीर आरोप तय करता है, जिसकी सजा 5 साल से ज्यादा है तो उसे चुनाव लड़ने के लिए अवैध करार दिया जाए। फिर उसके खिलाफ मामले में सुनवाई ही क्यों न चल रही है। दरअसल हमारे देश में जब तक कोर्ट किसी व्यक्ति को दोषी करार नही दे देता तब तक उसके चुनाव लड़ने में प्रतिबंध नही है। एक लोकतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि कानून तोड़ने वाले कानून बनाने वाली संस्था का हिस्सा बन बैठे हैं। आज जरूरत है कि हर कीमत पर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जाए। हमें विचार करना होगा की चुनावों में पैसों के बेताहाशा इस्तेमाल पर कैसे अंकुश लगे। आयाराम गयाराम की परंपरा को कैसे रोका जाए। पेड न्यूज के बड़ते चलन पर पर कैसे रोक लगे। एक व्यक्ति लोकसभा का चुनाव हार जाता है तो राजनीतिक दल उसे राज्यसभा के लिए मनोनीत करते हैं। क्या यह जनता के मत का अपमान नही है? एक व्यक्ति को एक ही जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए। जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विकल्प पर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। हाल के दिनों में विधि मंत्रालय ने चुनाव सुधार के कुछ छोटे मोटे सुधारों पर मुहर लगाई है। मगर जमानत राशि बढ़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होगा। जरूरत इस बात की है कि सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आम सहमति बनाये और इसे लागू करे। नही तो वह दिन दूर नही जब फिर एक जन आंदोलन खड़ा होगा और सरकार और संसद को जनभावनाऐं सुधार के लिए विवश कर देंगी।



मीड डे मील

कितने बच्चों को मिलता है   12 करोड़
क्या है दिशा निर्देश
पका खाना बच्चों को परोसने से पहले 2 से 3 लोगों उसे टेस्ट करेंगे जिसमें टीचर शामिल है।
अनाज दाल सब्जी तेल में मिलावट नही होनी चाहिए।
कप्यूनिटी इन्वोलमेंट जरूरी
शिकायतों के निवारण के लिए व्यवस्था जरूरी
देश में कुक कम हेल्पर की संख्या 25.48
योजना के तहत मिलता क्या है
चावल या दाल  100 ग्राम
दाल            20 ग्राम
सब्जी           50 ग्राम
तेल              5 ग्राम
1 से 5 तक की कक्षा के बच्चों के लिए
चावल या दाल  150 ग्राम
दाल            30 ग्राम
सब्जी           75 ग्राम
तेल              7.5 ग्राम
5 से 8 तक की कक्षा के बच्चों के लिए
यह योजना केन्द्र और राज्य की संयुक्त जिम्मेदारी के तहत चलाई जाती है।
75ः25
निगरानी तंत्र के लिए दिशानिर्देश
कौन होता है निगरानी तंत्र में शामिल
राज्य सरकार के अधिकारी
फूड और न्यूर्टीशन बोर्ड
न्यूर्टीशन एक्सपर्ट
मानीटरिंग इंस्टीटयूट
स्क्ूल मैनेजमेंट कमिटि
केन्द्र सरकार करेगी समीक्षा
अब क्यों आई समीक्षा की याद
बिहार सरकार को दिखाई देती है साजिश
बच्चों के मिलने वाला एमडीएम की गुणवत्ता बेहद खराब
कुल केन्द्रीय बजट का 1.8 फीसदी निगरानी तंत्र के लिए
साल 2012 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय को 16 शिकायतें प्राप्त हुई। मंत्रालय ने संबंधित राज्य सरकारों को आवश्यक कार्यवाही के लिए इन शिकायतों
को भेज दिया।


 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

मुददों से मुंह चुराती राजनीति

नरेन्द्र मोदी को इसी महिने के अंत तक बीजेपी अपना 2014 का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर देगी। संघ बीजेपी का चुनावी प्लान तैयार कर चुका है। यानि बीजेपी की चुनावी वैतरणी पार लगाने की जिम्मेदारी नरेन्द्र मोदी के कंधे पर होगी। दिलचस्प बात यह है की 6 करोड़ गुजरातियों की अस्मिता की बात करने वाले मोदी देश कि 1 अरब 21 करोड़ के देश में बीजेपी के लिए कोई चमत्कार कर पाऐंगे? बीजेपी के रणनीतिकार मोदी मैजिक को लगातार हवा दे रहें है। वैसे देखा जाए 2014 का चुनाव सही मायने में देश के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नही होगा। 2004 और 2009 में यूपीए के पक्ष में मतदान करने वाली जनता का इस गठबंधन से मोहभंग हो गया है। ढलान की ओर जा रही अर्थव्यवस्था, सिमटते रोजगार, आसमान छूती महंगाई, भ्रष्टाचार, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अत्याचार, आतंकवाद और नक्सलवादी घटनाओं में बढ़ोत्तरी और विदेश नीति के स्तर पर कमजोर पड़ती साख ने यूपीए को जनता के बीच नापसंद बना दिया है। 2009 में जिस प्रधानमंत्री की ईमानदारी को लोग ने सराहा वह आज उन्हे अलीबाबा की संज्ञा दे रहें है। 2जी, राष्टमंडल खेल, कोलगेट, रेलगेट वीवीआइपी हेलीकाप्टर डील, मनरेगा, ऋण माफी योजना जैसे घोटालों ने लोगों की नजर में यूपीए सरकार की छवि धूमिल हो गई है। यूपीए की साख को जो बटटा लगा है उसे निकलना मुमकिन नही। लूट की इन खबरों ने उसके पिछले 9 साल के महत्वकांक्षी कार्यक्रमों सूचना का अधिकार, रोजगार का अधिकार शिक्षा का अधिकार और अब भोजन का अधिकार संबंधी कानूनों की हवा निकाल दी। हाल ही में देश के कई जिलों में लागू योजना आपका पैसा आपके हाथ भी सरकार की इस धूमिल छवि को संभाल पाएगी, ऐसा लगता नही है? मगर यूपीए गल्ती से दुबारा सत्ता में आता है तो उसका सारा श्रेय में नरेन्द्र मोदी
को जाएगा। यानि मोदी आज एक ऐसी शख्सियत बन गए है जो देश की राजनीति के केन्द्र में हैं। उनके पिल्ले के मरने में भी दुख होता है संबधी बयान का मतलब जो भी निकाला जाए मगर उनके राजनीतिक विरोधी इसे मुस्लिम विरोधी बयान ही बतायेंगे बल्कि भुनाऐंगे। ठीक वैसे ही जैसे मोदी के लिए उनका नकारात्मक प्रचार किसी वरदान से कम साबित नही होता। मौत का सौदागर वाले बयान को गुजरात चुनाव में उन्होने किस तरह से भुनाया, यह हर कोई जानता है। इशरत जहां मुठभेड़ मामले में भी बात उनके पक्ष में जाएगी और इस बात का एहसास कांगेस को है। बावजूद उसके वह सब काम कर रही है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ध्रवीकरण केभरोसे है। कांगे्स को लगता है की मोदी मुस्लिमों को उनके पक्ष में लामबंद करने में मदद करेंगे। और धर्मनिरपेक्षता के कार्ड की आड़ में वह यूपीए को फिर केन्दे में ला सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं की 1984 के सिख विरोधी दंगे और  2002 के दंगे इस देश के लिए धब्बा हैं। नरेन्द्र मोदी उस समय मुख्यमंत्री थे और सही मायने में उन्होने राजधर्म का पालन नही किया। न ही इसके लिए उन्होंने कभी माफी मांगी और लगता नही वह कभी मांफी मागेंगे। हिन्दू राष्टवादी कहलाने में अपनी शान समझने वाले नरेन्द्र मोदी क्या नही जानते की क्षमा मांगना और करना हिन्दुओं का गहना है। कोई हिन्दु राष्टवादी इन मूल्यों का महत्व नही समझता और खासकर नरेन्द्र मोदी यह समझ से परे है। और यह देश केवल हिन्दुत्व के नाम पर वोट डाल देगा ऐसा सोचने वाले मतदाताओं को मूर्ख न समझे। इस देश के मतदाता अगर सही में भारत निर्माण का स्व्प्न देखते है तो उन्हे संपूर्ण भारतवर्ष के सर्वसमावेशी विकास की बात करनी होगी। जाति और धर्म के नाम पर इस देश में वोट डालने वाले अपनी और आने वाल पीढ़ी के विनाश का रास्ता तैयार कर रहे हैं। कांग्रेस के कुप्रशासन को गाली देना समस्य का समाधान नहीं?  बीजेपी के पास देश के सामूहिक विकास का क्या रोडमैप
है किसी को नही मालूम। क्या देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने का कोई एजेंडा बीजेपी के पास है? देश की आन्तिरक सुरक्षा से निपटने के लिए बीजेपी क्या करेगी? काला धान कैसे  वापस लाएगी? महंगाई कम कैसे करेगी? देश का साख जो अंतराष्टीय स्तर पर कमजोर हुई है उसे वह दुबारा कैसे लाएगी? इसका रोडमैप नदारद है फिर भी बीजेपी कांग्रेस का विकल्प है? केवल कांग्रेस को कोसने से देश का भला नही हो सकता। या नरेन्द्र मोदी एकमात्र देश की समस्या का समाधान है ऐसा नही कहा जा सकता। जो लोग राम मंदिर के निर्माण की बात करते हैं वह केवल भावनाओं को भड़काने का काम करेंगे? भारत के हित चाहते वाला व्यक्ति
सिर्फ एक संप्रदाय का भला नही सोच सकता। उसके भीतर अगर सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव नही है तो देश के लिए हितकर नही होगा। भारत की असली शक्ति उसका धर्मनिरपेक्ष छवि है और इसको बनाये रखना नितान्त आवश्यक है। मगर इसकी रक्षा न कांग्रेस ने की न ही बीजेपी ने। दोनों ने इस भाव को अपने राजनीति स्वार्थ के चलते रौंद दिया। क्षेत्रिय पार्टिया इस काम में और आगे है उदाहरण कोई हिन्दु का नेता है कोई मुस्लिम का नेता है कोई यादवों का कोई दलितों का मसीहा है कोई कुर्मियों का रखवाला है। इन सब की असलियत यह है की इन सबहों ने अपने राजनीति स्वार्थ के लिए इन भावनात्मक मुददों को हवा दी। इस समुदाय के लिए कुछ नही किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कहता की देश के संसाधनों में अल्पसंख्यकों का पहला हक है क्या बताता है। मोदी अपने को हिन्दु राष्टवादी होने का खुद सटिफिकेट दे रहें है। कोई जाति सम्मेलन कर रहा है। कोई महादलित प्रेम को दर्शा रहा है लेकिन कोई यह नही कहता दिखाई दे रहा है अखंड भारत समृ़द्व भारत। दुर्भाग्य देश का यह है की मतदाता इसे समझते हुए भी इनके रचे
प्रपंच में फंस जाते है। भारत के नगारिकों को समाज में एक सम्मान की जिन्दगी जीने का मौका कैसे मिलेगा। कौन सा राजनीतिक दल इसे मूर्तरूप दे सकता है। राम मंदिर बनाने से क्या 48 फीसदी कुपोषित बच्चों का भला हो जाएगा? मस्जिद गिराने का क्या हिन्दु खुश होता है? देश के युवाओं को राम मंदिर से
 ज्यादा अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य की सुविधा, रोजगार, साफ हवा, पानी और सुरक्षा चााहिए। दुर्भाग्य देखे इन मुददों पर कोई चुनाव नही लड़ता चाहता। यह हवा प्रचलित है की यह मुददों चर्चा का विषय हो सकते है मगर वोट पाने के लिए यह विषय बेदम हैं। ऐसी मानसिकता रखने वाले देश का भला नही कर सकते। भारत आज घोर आपदा में घिरा हुआ है। आम आदमी हतप्रभ है यह देखकर की संसाधनों की लूट मची है किसान आदिवासी दलित आत्महत्या कर रहा है मगर राजनीति यह देख नही पर रही। महिलाओं पर अपराध बढ़ते जा रहे है मगर राजनीति इसमा समाधान कानून में खोजती है। युवाओं का धैर्य जवाब दे रहा है मगर राजनीति को यह सब सोशल साइटस का प्रपंच लगता है। देश के शक्ति बोध और सौंदर्य बोध आज खतने में है इसलिए मतदाता भारत के सुनहरे भविष्य की इबारत लिखते वक्त जरूर ध्यान दें की वह किसे और क्यों वोट दे रहें हैं?