मंगलवार, 27 नवंबर 2012

खुदरा क्षेत्र में एफडीआई पर राजनीति

संसद का सत्र मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को को लेकर नही चल पा रहा है। सरकार की विपक्ष को मनाने की हरंसभव कोषिष नाकाम साबित हो रही है। विपक्ष लोकसभा में नियम 184 और राज्यसभा में नियम 168 के तहत बहस कराये जाने से कम में कुछ भी माननू को तैयार नही। वही सरकार का नम्बर गेम उसके लिहाज से फिट तो बैठता है मगर इस नियम के तहत चर्चा कराये जाने को लेकर वह मानने को तैयार नही। विपक्षा का आरोप है की वित्तमंत्री रहते हुए प्रणव मुखर्जी ने लोकसभा में और वाणिज्य मंत्री कमलनाथ ने राज्यसभा में सभी को विष्वास में लेकर इस मुददे का हल निकालने का विष्वास दिलाया था। मगर सरकार ने बिना विपक्षी यहां तक की सहयोगियों को विष्वास में लिए इससे जुड़ा नोटिफिकेषन जारी कर दिया। इससे पहले कांग्रेस दिल्ली में महारैली का आयेाजन कर चुकी है। जिसे उसके नेता एक सफल आयोजन बता रहे थे। मगर सरकार कोई बडा़ राजनीतिक संदेष और सुधारों को लेकर अपना बचाव कर पाई ऐसा लगता नहीं। प्रधानमंत्री ने इन सुधारों को वक्त की दरकार बताकर ड़ीजल के दाम बढ़ाने और सब्सिडी से जुड़े एलपीजी सिलेंडर को 6 तक सिमित करने के पीछे मजबूरी का रोना रोया। देश का राजनीतिक लिहाज से दूसरे सबसे ताकतवर व्यक्ति व्यवस्था परिवर्तन की दुहाई देता है तो सवाल उठता है कि यह व्यवस्था किसकी देन है जहां गरीब और मजदूर की कोई सुनवाई नही है। मगर इस महारैली का अयोजन का खास मकसद किसानों को मल्टीब्रांड रिटेल सेक्टर में एफडीआई को लाने को लेकर था। मगर क्या सरकार देश को इससे हेाने वाले फायदे जैसा की सरकार तर्क दे रही है, जनता को समझा पाई। इसका जबाव आने वाले चुनावों से मिलेगा। मगर  सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में दूसरे मुददों के साथ- साथ इस मुददे पर घिरना तय है। सवाल यह उठता है कि 16 साल से लटके पड़े इस मुददे का महज यह एक राजनीतिक विरोध है या वाकई इस कदम से इस देश के किसान, खुदरा कारोबारी और रेहड़ पट्टी वालों की आजीविका खतरे में पड़ जाएगी। चूंकि इसके विरोध में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि खुदरा क्षेत्र से जुड़े 4 करोड़ से ज्यादा कारोबारी सरकार के इस कदम से तबाह हो जाऐंगे। लघु उद्योग प्रतियोगी माहौल में दम तोड़ देंगे। यह बड़ी कंपनियां आकर हमारे देश में मनमानी करेंगी। मगर किसी भी निर्णय में पहुंचने से पहले यह समझना जरूरी है कि भारत में खुदरा बाजार की क्या स्थिति है? इसका हमारी अर्थव्यवस्था में क्या योगदान है? रोजगार के क्षेत्र में यह क्या भूमिका निभाता है? क्या महंगाई को कम करने में यह कदम रामबाण साबित होगा। क्या सालाना होने वाली फल और सब्जियों की बर्बादी में कमी आएगी? यह ऐसे सवाल है जो हर किसी के ज़ेहन में उठ रहे होंगे। दरअसल भारत में खुदरा कारोबार वर्तमान मंे 28 बिलियन डालर का है जिसके 2020 तक 260 बिलियन डालर तक पहुंचने की उम्मीद है। मतलब इस क्षेत्र में वर्तमान से 9 गुना ज्यादा बढ़ोत्तरी होगी। साथ ही जीडीपी में इसका योगदान बढ़ेगा और  रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। आज हमारे खुदरा क्षेत्र में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि खुदरा क्षेत्र में 95 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र से हैं। महज 5 फीसदी लोग संगठित क्षेत्र से हैं। खुदरा क्षेत्र का 70 फीसदी कारोबार खाद्य से जुड़ा है। बस इसी को सामने रखकर विरोध में कहा जा रहा है की हमारी खाद्य सुरक्षा पर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिपत्य हो जाएगा। मगर इसके पक्ष में भी बेशुमार तर्क है। उदाहरण के तौर पर, इससे उपभोक्ताओं को 5 से 10 फीसदी की बचत होगी। किसान को अपने उत्पाद के 20 से 30 फीसदी ज्यादा दाम मिलेंगे। 30 से 40 लाख नए रोजगार उपलब्ध होंगे। इसके अलावा अप्रत्यक्ष तौर में 40 से 60 लाख रोजगार का सृजन होगा। सरकार को इससे जुड़े ढंाचागत विकास मसलन प्रोसेसिंग, मैनूफैक्चरिंग, वितरण, डिजाइन, गुणवत्ता, कोल्ड चेन, वेयरहाउस और पैकेजिंग जैसे कामो में तेजी आएगी। इन सब वजहों की कमी के चलते सालाना 50 हजार करोड़ का नुकसान हमें उठाना पड़ता है। मसलन 16500 करोड़ का अनाज जो उत्पादन का 10 फीसदी है, बर्बाद हो जाता है। इसी तरह 15 फीसदी दालें, 30 फीसदी फल और सब्जियां और 40 फीसदी फलोरीकल्चर से जुड़े उत्पाद रखरखाव के अभाव में बर्बाद हो जाते हैं।। अगर निवेश का 50 फीसदी हिस्सा इस बुनियादी क्षेत्र को विकसित करने में लगता है जैसे की कहा गया है तो हालात में तेजी से सुधार आएगा। सरकार के मुताबिक  बैक एंड इन्फ्रास्ट्रकचर में कुल निवेष का 50 फीसदी खर्च करना अनिवार्य होगा। बहरहाल सरकार के इस फैसले से वालमार्ट, कैरीफोर, टेस्को और मेट्रो जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत में कारोबार करने का रास्ता खुल गया है। मगर वर्तमान राजीनीतिक माहौल में यह कदम सरकार की साख और  सुधारों को गति दे पाएगा इसपर कुछ नही कहा जा सकता। बहरहाल सरकार ने 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में इन रिटेल स्टोरों को खोलने की अनुमति दी है। साथ ही कुछ ठोस प्रावधान भी किए हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक देष में 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों की संख्या 53 है। इससे पहले औद्योगिक और संर्वधन विभाग द्धारा जारी चर्चा पत्र में मल्टी ब्रांड रिटेल के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात कही गई है। रिटेल भारत में कृषि क्षेत्र के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। 8 से 9 प्रतिशत की सालाना दर से यह क्षेत्र आगे बढ़ रहा है। इससे पहले एकल रिटेल ब्रांड में 2006 में 51 फीसदी एफडीआई को अनुमति दी थी। जिसे अब 100 फीसदी कर दिया गया है। साथ ही होलसेल में 100 फीसदी विदेशी निवेश लागू है। एक अनुमान के मुताबिक 2006 से मई 2010 तक 901 करोड़ का निवेश इस क्षेत्र में आया है। इसमें से ज्यातातर निवेश खेल से जुडे परिधानों मसलन लग्जरी समान जेवरात और हैंडबैग में आया है। आज सरकार को यह स्थिति भी स्पष्ट करनी चाहिए कि छोटे कारोबारियों और रेहडी पटटी वालों पर इसका क्या प्रभाव  होगा? क्या वालमार्ट और कैरीफोर जैसी दिग्गज कंपनियां जो भारत के बाजार में प्रवेश के लिए ललायित हंै,उतने लोगों को रोजगार दे पायेंगी जितने लोग असंगठित खुदरा कारोबार से जुडे़ हैं? इस बात में कितना दम है कि किसान और ग्राहकों का इसका सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा? क्या सरकार के इस कदम थोक और फुटकर दामों में अन्तर  पाटने में हमें कितनी मदद मिलेगी? क्या महंगाई की रफतार को थामने में यह कदम कितना मदद करेगा? और आखिर में सबसे अहम भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या असर पडे़गा? सच्चाई यह है कि सिंगल ब्रांड में इन नियमों का पालन नही हो रहा है। भारत में रिटेल में जीडीपी की हिस्सेदारी 10 फीसदी के आसपास है जबकि चीन में यह 8 फीसदी, ब्राजील में 6 फीसदी और अमेरिका में 10 फीसदी है। भारत में तकरीब 1.5 करोड़ रिटेल स्टोर है जिनमें प्रमुख है पैन्टलून, सौपर्स स्टाॅप ,स्पैंसर, हाइपर सीटी, लाइफस्टाइल, सुभिक्षा और रिलायंस।  वाणिज्य मंत्रालय से जुड़ी स्थाई समिति ने मल्टी ब्रांड में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर असहमति जताई थी। इस समिति ने सरकार से इस कार्य को करवाने के लिए देश के निजि क्षेत्र को षामिल करने का सुझाव दिया था। मगर सरकार ने इस सुझाव को नकार दिया था। खुदरा व्यापार राज्य का विषय है। लिहाज इस मामले में हरी राज्यों की भी हामी जरूरी है। बहरहाल कई राज्य इसे अपने यहां लागू न करने की बात साफ कर चुके हैं। इसलिए देखना दिलचस्प होगा की बीजेपी ़द्धारा शासित राज्य में इन दिग्गज कंपनियों का प्रवेश होता है या नही। इसमें कोई दो राय नही भारत और चीन दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता बाजार है ऐसे में यह कंपनियां यहां आने के लिए लम्बे समय से प्रयासरत थी। मगर आशंकाओं के सहारे भविष्य की आवश्यताओं को नकारना बुद्धिमानी नही। आज इस क्षेत्र में निवेश की जरूरत है। खुदरा क्षेत्र में बुनियादी ढांचे को मजबूत करने की जरूरत है। महंगाई से आम आदमी को राहत देने की जरूरत है। मगर अच्छा होता सरकार इससे पहले अपने देष के मौजूदा ढांचे में व्यापक बदलाव कर लेती। मसलन सरकार ने यह तय नही किया की खुदरा कीमत का कितना प्रतिषत यह कंपनियां किसान को देंगी। किसान को कितने समय के अंतराल में उसके उत्पाद की कीमत मिलेगी। क्यों किसी निगरानी तंत्र जैसे प्राधिकरण का गठन नही किया गया? इनके क्रियाक्लापों पर नजर रखने वाली संस्था कौन होगी ? गुणवत्ता के नाम पर कहीं ये कंपनियां किसान को परेषान तो नही करेंगी। क्यों कई देषों में इन कंपनियों का विरोध हो रहा है?

1 टिप्पणी:

  1. "Posted by रमेश भट्ट at 2:08 am ........"

    जरा आराम भी किया करो जनाब....

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