रविवार, 31 मई 2009

जरूरी है पुलिस सुधार




हाल ही में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की ओर से यह बयान आना कि पुलिस में बडे पैमाने पर भ्रश्ट है मामले की गंभीरता को बयॉं करता है। गाहे बगाहे यह सच्चाई सामने आती रहती है। फर्क इतना है कि इसे स्वीकार करना सबके बूते की बात नही। पुलिसिया व्यवस्था भ्रश्टाचार के आकंठ में डूबी हुई है। यह किसी से छिपा नही है। मगर इस समस्या के निदान के लिए आज तक कुछ ठोस नही हुआ। हॉं समय समय पर समितियों की लम्बी चौड़ी सिफारिशें जरूर आती रही। पुलिस सुधारों को लेकर राज्य सरकारों का रवैया भी संतोशजनक नही रहा। वही समय के साथ साथ अपराध बड़ते रहे। हालात इतने बिगड गए है कि आंतरिक सुरक्षा को लेकर राश्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम के नारायणन को खुद कहना कि आतंकवादियों की पैठ जमीन आसमान और समंदर तक बड़ गई है। 26 नवंबर को मुंबई में हुए आतंकी हमलों ने देश को हिलाकर रख दिया। आज जरूरी है कि इस मामले के हर पहलू पर गौर किया जाए। सबसे पहले सुरक्षाकर्मियों को मिलने वाल सुविधाओं पर ध्यान देना होगा। अगर सुरक्षा करने वाले पुलिसकर्मियों की बेहतर देखरेख नही की गई तो हालात में सुधार आना नामुमकिन है। पुलिस कर्मियों की संख्या बड़ानी होंगी। काम का दबाव में कमी लाने के साथ साथ उन्हें बेहतर सुविधाओं मुहैया करानी चाहिए। इस पर आज बात करने को कोई तैयार नही है। पुलिस सुधार को लेकर अकसर जुबानी बातें होती रहती है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक पुलिस व्यवस्था में सुधार की वकालत कर चुके है। दरअसल हमारे देश में पुलिस कानून 1861 का है जिसे बदलने की चर्चा हमेशा होती रहती है। कही हिरासत में हुई मौत तो कही फर्जी मडभेड। कही जनता पर बबZरता तो कही राजनीति और पुलिस के अवैध गठजोडों ने पुलिस की छवि को धक्का पहुंंचाया है। यही कारण की अपराधियों को खुद सजा देने की प्रवृति भी बड़ने लगी है। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह अच्छे संकेत नही। इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी मामले के प्रति गंभीरता का आभाव और मुिश्कलें बड़ाने वाला है। आंतरिक सुरक्षा को लेकर सरकार और विपक्ष के बीच सॉंप नेवले का संग्राम आम बात है। आज आम आदमी अपने को असुरक्षित महसूस कर रहा है। आतंकियों की पहुंंच छोटे छोटे शहरों तक बड़ गई है। देश के तेरह राज्य आंशिक व पूरी तरह से नक्सली हिंसा की चपेट में है। पूर्वोतर में असम में उल्फा का संघशZ बरकरार है। ऐसे में सुरक्षा का चिंता होना लाजिमी है। मगर निपटे कैसे इसपर बयानबाजी के अलावा और कुछ नही हेाता। देश का पुलिस कानून 147 साल पुराना है। ये वो समय था जब आजादी के परवानों को दबाने के लिए यह कानून बनाया गया। मगर आज ज्यादातर मामलों में इसका प्रभाव निश्क्रिय हो चुका है। तो ऐसे में इसका औचित्य क्या। ऐसा नही की इसको लेकर प्रयास नही हुए। प्रयास कई बार हुए मगर नतीजों पर सिर्फ विधवा अलाप ही किया जा सकता है। सवाल यह उठता है कि इतने गंभीर मसलों पर सरकारें अर्कमण्य क्यों रहती है। समाज में अपराध तेजी से पॉंव पसार रहा है मगर इससे निपटने की कवायद की रफतार धीमी है। संविधान की 7वीं अनुसूचि में पुलिस और कानून राज्यों का विशय है। सरकार का जवाब तो रटा रटाया है। पुलिस और कानून राज्य का विशय है इसलिए उनके हाथ बंधे है। यह बात सौ आने सच है। मगर उन्होने दिल्ली या अन्य संघ शासित प्रदेशों की पुलिस व्यवस्था में कौन सा ऐसा व्यापक बदलाव कर दिया जिससे वे राज्य सरकारों के सामने एक नजीर पेश कर सके। अपराध और अपराधियों के मामले में राजधानी दिल्ली खासा बदनाम है जबकि इसकी सीधी लगाम गृह मंत्रालय के हाथों में है। ऐसा नही कि पलिस सुधार को लेकर कुछ नही हुआ। सुधार के लिए बनाई गई समितियों की एक लम्बी फेहरिस्त है। सबसे पहले 1977 में पुलिस सुधार आयोग बनाया बनाया गया। मगर इनकी सिफारिशों को लेकर कोई पहल नही दिखाई दी। इसके बाद 1998 में रिबेरो समिति, 2000 में पघनाभयया समिति, 2002 में मालीमथ समिति। इसके बाद गृहमंत्रालय ने 20 सितंबर 2005 में विधि विशेशज्ञ सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया । इस समिति ने 30 अक्टूबर 2006 को मॉडल पुलिस एक्ट 2006 का प्रारूप केन्द्र सरकार केा सौंपा। उधर सुप्रीम कोर्ट ने 22 सितंबर 2006 को प्रकाश सिंह बनाम केन्द्र सरकार मसले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया। साथ ही इन सिफारिशों पर राज्य सरकारों को स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने राश्ट्रीय पुलिस आयोग की ज्यादातर सिफारिशों पर मुहर लगा दी। इन सिफारिशों में पुलिस मकहमे को राजनीतिक दखलअंदाजी से दूर रखने की बात कही। बड़े अधिकारियों का फिक्स कार्यकाल तय किया जाए साथ ही अपराधों की जॉंच और कानून को लागू करने वाली एजेंसियों को अलग अलग करने की बात कही गई। ज्यादातर राज्य सरकारों को यह बातें रास नही आई। हालॉंकि कुछ सरकारों ने जरूर इनपर अमल किया। पुलिस आधुनिकीकरण के बजट का भी सही इस्तेमाल देखने में नही आ रहा है। ज्यादातर सरकरों के पास पैसा तो है मगर उसे खर्च नही किया गया है। मौजूदा हालातों को देखते हुए राज्य सरकारों के भी मामले पर गंभीर होना पडेगा। हमारे यहॉ जनसंख्या पुलिस अनुपात भी तय मानदंड से बहुत ही नीचे है। राज्य सरकार रिक्त पडे पदों को भरने के जल्द ही कदम उठाये। हर स्तर पर जानकारी जुटाने वाले तंत्र को मजबूत बनाया जाए। साथ ही पुलिसकर्मीयों को बेहतर सुविधाऐं देने के लिए राज्य सरकारों को अपने बजट को भी बढाना चाहिए। तभी जाकर हम मौजूदा चुनौतियों का सामना कर सकते है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें