रविवार, 22 अगस्त 2010

इस देश में करोड़ों नत्था हैं

एक नही, दो नही, इस देश में करोड़ों नत्था है। क्या हुआ जो पीपली लाइव का नत्था नही मरा। इस देश में 1997-2007 यानि 10 सालों में 187000 नत्था अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके है। यह तो सरकारी रिकार्ड में दर्ज नत्थाओं के आंकड़े है। ऐसे न जाने कितने नत्था होंगे जिनका नाम सरकारी फाइलों में नही होगा। दरअसल राजनीति और मीडिया के लिए नत्था जैसा मसाला संजीवनी की तरह होता है। एक पक्ष अपने वोट बढ़ने की आस को लेकर आनन्दित होता है तो दूसरा अपनी टीआरपी के खेल में मशगूल। नत्था की कहानी उन करोड़ों किसानों की कहानी है जो हर पल अपनी जिन्दगी को लेकर संघषर्रत है। यही कारण है कि पीपली लाइव फिल्म इन दिनों हर आमोखास के बीच चर्चा का विषय बन गई है। खासकर इससे जुड़े पात्र इसकी कहानी, बेहतर परिकल्पना ठेठ ग्रामीण परिवेश और इन सबसे उपर दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में राजनीति का खेल वाकई देखने लायक है। इन सबके बीच वह किसान जो अपनी खेती से अजीज आकर विकल्प की तलाश में भटक रहा है।   किसानों की दुर्दशा पर फिल्माई गई यह फिल्म इस संवेदनशील मुददे पर सरकारी रूख की पोल खोलती है। किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं ने सरकारों की नीन्द जरूर खुली मगर किसानों की आत्महत्या अब भी हो रही है। फिल्म से पहले यह जान लेना जरूरी है कि हमारी सरकार इस क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए कितनी गम्भीर हैं। किसानों की आत्महत्या के मामले में कुख्यात राज्यों में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल आगे रहे। इन सबके पीछे का कारण किसानों पर कर्ज का बड़ता बोझ था। आज भी हमारे देश में केवल 27 प्रतिशत किसानों की पहुंच बैंकों तक है। इससे साफ है कि किसानों की एक बड़ी आबादी आज भी साहूकारों से कर्ज लेती है। सरकार की 71 हजार करोड़ की कर्ज माफी योजना पर सबसे बड़ी आशंका इसी मुददे को लेकर थी। बहरहाल सरकार ने एक समिति गठित की है जो पता लगाएगी कि देश भर में कितने किसानों ने साहूकारों से कर्ज ले रखा है। बजट 2010-11 में कृषि ऋण बांटने का लक्ष्य 3.25 करोड़ से बढ़ाकर 3.75 करोड़ कर दिया है। साथ ही जो किसान समय से अपने ऋण बैंकों में चुकायेंगे उन्हें 2 प्रतिशत ब्याज दर की छूठ दी जायेगी। यह ऋण 7 प्रतिशत की ब्याज दर में 3 लाख तक लिया जा सकता है। यहां पर यह भी बताना जरूरी है कि खेती में सुधार पर बैठाये गए राष्ट्रीय  किसान आयोग ने कृषि ऋण 4 प्रतिशत की दर पर देने की सिफारिश की थी।  पीपली लाइव में कर्ज के बोझ तले दबे नत्था को अपनी जमीन खो जाने की चिन्ता में वह दरदर भटक रहा होता है। वह जमीन जिससे उसके परिवार की रोजी रोटी चलती है। घर में बूढ़ी मां बीमार है। उसके इलाज में पहले ही बहुत खर्च हो चुका है। उस पर जमीन का चले जाने का मतलब जीवन में हर तरफ अंधेरा आ जाना। फिल्म मे जो काबिलेगौर बात इस मुश्किल घड़ी में मद्यपान करना वह नही भूलता। जाहिर है यह सामाजिक  बुराई भी कोढ़ में खाज का काम करती है। किसान देश की राजनीति में अहम स्थान रखते है। एक आम आदमी की नज़र में वह अन्नदाता है। नेताओं की नज़र में वह वोट काटने की मशीन है। मगर सच मानिए उसकी खुद की नज़र में वह हाण्ड मांस का एक ऐसा इंसान है जो दिन रात खून पसीना एक करके भी परिवार की जरूरतों को पूरा नही कर पाता। मीडिया के लिए नत्था की खबर एक मसाला है जो हाथों हाथ बिकेगा। बस उसे सनसनी की तरह पेश करो और टीआरपी की सीढ़ी चड़ो। किसान वह भी कहकर आत्हत्या करे राजनेताओं के लिए इससे बड़ा कोई मुददा नही। यह मुददा जीत को हार में और हार को जीत में बदल सकता है। यानि जीत और हार के बीच एक महीन रेखा जो नत्था जैसे किसान के जीने या मरने पर निर्भर करती है। इस फिल्म का सन्देश यही है कि मीडिया को जिम्मेदार और नेताओं को वफादार बनना होगा। यह देश किसानों का है। खाद्य सुरक्षा का जिम्मा उनके कंधों पर है। लिहाजा उनके कल्याण के बिना देश के कल्याण के बारे में सोचना बेमानी होगी।

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