रविवार, 28 नवंबर 2010

यह आर्थिक आतंकवाद है

क्या भ्रष्टाचार एक तरह का अर्थिक आतंकवाद नही है। ऐसा आतंकवाद जो देश की तरक्की में सबसे बड़ा बाधक है। जिसे देश में गरीबी का यह आलम है कि 77 फीसदी आबादी एक दिन में 20 रूपये से ज्यादा खर्च करने की हैसियत नही रखती वहां अरबों खरबों की लूट का लाइसेंस किसी को कैसे दिया जा सकता है। जहां तन ढकने के लिए कपड़ा, सर छुपाने के लिए छत और पेट भरने के लिए रोटी के लिए करोड़ों लोग रोजाना जददोजेहद कर रहे हों वहां कलमाड़ी या ए राजा जैसे लोगों का बोझ कैसे उठाया जा सकता है। दुर्भाग्य इस देश का यह है कि आज यहां आवाज उठाने वाला कोई नही है। मानो सबने भ्रष्टाचार  को सच्चाई मानकर स्वीकार कर लिया हो। किसी भी ने प्रतिरोध करने की जहमत नही उठाई। जो कर रहे है उनके दामन खुद दागदार है। बड़ी पीडा़ होती है तब जब भूख से अकुलाते बालक को देखता हूं। दुख होता है जब विश्व भुखमरी सूचकांक के आंकड़ों की ओट में भारत का स्थान देखता हूं। गुस्सा आता है जब बड़ी मछलियां अपने रसूक के चलते कानून को ढेंगा दिखाकर बच निकलते हैं। खून खौलने लगता है जब नेता अपने फायदे या नुकसान को ध्यान में रखकर इन मुददों को उठाते है और भूल जाते हैं। भले ही नेताओं को यह मुददा वोट पाने का औजार लगता हो, मगर हमारे जैसे नौजवानों के लिए यह जीवन मरण का प्रश्न है। जिसे देश में किसान आत्महत्या कर रहें हों, बच्चों की एक बड़ी आबादी कुपोशण का शिकार हो, महिलाओं में खून की कमी हो, अवसंरचना विकास के लिए धन की कमी एक बड़ा रोड़ा हो, पुलिस जज और शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हों, गांव में पीने का पानी, स्वच्छता और बिजली का अभाव हो वहां भ्रष्टाचार को एक साधारण घटना मान लेना या भ्रष्टाचारियों को प्रसय देना आत्मघाती साबित होगा। आज यह बात पूरा देश जानता है कि स्विस बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन भारतीयों का है। यह  इतना है कि  भारत का कर्ज और गरीबी दोनों मिट सकती है। मगर इस आग में हाथ डालने की हिम्मत किसी की भी नही। उनकी भी नही जो आम आदमी के साथ अपना हाथ होने का पाखण्ड करते है या वो जो पार्टी विद द डिफरेन्स होने का स्वांग रचते हैं। सच तो यह है कि यह उस भूखे भेड़िये की तरह हैं जो मौका मिलने पर मांस को लोथड़ों को  नोचने के लिए तैयार रहते है। आजाद भारत को सपना जो बलिदानियों ने देखा था वह टूटता प्रतीत हो रहा है। आज जरूरत है इस सपने को टूटने से बचाने की, मिलकर एक आवाज उठाने की जो इस भ्रष्टतन्त्र की नीव को हिला सके। मगर इसके लिए जरूरी है कि समय रहते कुछ बड़े कदम उठाने की। पहला भ्रष्टाचार एक तरह का आतंकवाद है जिसकी सजा भी वही होनी चाहिए जो आतंक के खिलाफ बनाये गए काननू में लिखी है। दूसरा भ्रष्टाचार के मामलों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन हो जिसकी समय सीमा प्रति मुकदमा 6 महिना हो। तीसरा लोगों को इस मुददे को गम्भीरता से लेते हुए सोचना होगा की कौन सा ऐसा राजनीतिक दल है जो इस कैंसर से निपटने में अपनी कथनी और करनी में फर्क न करे जो मैं मानता हूं की मुश्किल काम है।
मैं चाहूं तो निजा में कूहून बदल डालूं , फ्रफकत यह बात मेरे बस में नहीं, 
उठो आगे बड़ो नौजवानों, यह लड़ाई हम सब की है, दो चार दस की नहीं 
दो चार दस की नहीं। 

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