बुधवार, 18 मई 2011

बाघ की कथा-व्यथा। सफर का चैथा दिन

चैथे दिन का हमारा सफर शुरू हो चुका था। हम बाघ की तलाश में तड़के ही निकल पड़े थे। रात को जंगल में मचे शोर ने यह संकेत दिया था कि बाघ इस जंगल में मौजूद हैं। कुछ ही दूर चलने पर हमें वन्य जीवों की आवाजें सुनाई देने लगीं। हमें लगा कि अब हमारी मंजिल करीब है। बाघ यहीं-कहीं है। हम चैकन्ने थे। तभी एकाएक टीम के सदस्य चिल्लाएµ‘बाघ।’ वो रहा। वह हमारे बिलकुल सामने था। हमारे कैमरे हरकत में आ चुके थे। टीम के सदस्यों के चेहरे पर मुस्कान साफ देखी जा सकती थी। थकान पलक झपकते ही काफूर हो चुकी थी। पूरे जंगल में कोहराम मचा था। पशु-पक्षी अपने भीति संकेतों से बाघ के आने की चेतावनी दे रहे थे। जंगल की इस दुनिया में एकाएक भगदड़ का माहौल बन गया था। चीतलों में अजीब-सी बेचैनी देखी जा सकती थी। वे बदहवास थे। जंगल के अपने अनुभवों से वे जानते थे कि बाघ के निशाने पर वही हैं। इस बीच हमारे गाइड ने हमें आगाह किया कि जल्दबाजी में उठाया गया कोई भी कदम जानलेवा साबित हो सकता है। बाघ कभी घूरता तो कभी गुर्राता। लगभग एक घण्टे की चहलकदमी के बाद वह बीच रास्ते पर बैठ गया। उसकी नारंगी देह पर काली धारियां और चमकती हुई आखें उसे एक तेजस्वी जीव बना देते हैं। मानो आग की लपटें उठ रही हों। तभी हमें एहसास हुआ कि जंगल में बाघ की कितनी अहमियत है। वह जंगल के इस रुपहले पर्दे का सूपर स्टार है। उसकी एक झलक पाने के लिए पर्यटकों का तांता लग गया था। जब ज्यादा हो हल्ला होने लगा तो बाघ वहां से दूसरी तरफ निकल गया। इधर नजर घुमाई तो पास में एक बाघिन नजर आई। झाड़ियों के बीच से चमकती उसकी आंखों से ऐसा लग रहा था मानो वह हमारी गतिविधियों पर नजर रखे हुए थी। बहरहाल हम अपनी तलाश की कामयाबी पर खुश थे। देर से ही सही, मगर हम बाघ को ढूंढ़ने में कामयाब रहे थे। 

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