गुरुवार, 18 जुलाई 2013

चुनाव सुधार के बिना भ्रष्टाचार और अपराधीकरण पर अंकुश लगाना मुमकिन नही?

सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक लगाने के लिए ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अब किसी भी कोर्ट से दो या उससे अधिक साल के लिए दोषी ठहराया गए व्यक्ति चुनाव नही लड़ पाऐंगे। कोर्ट ने तीन महिने के अपीन के प्रावधान को भी खत्म कर दिया है। यहां तक की जेल से भी चुनाव लड़ने पर मनाही हो गई है। इसमें राजनीतिक दल नाक भौं सिकोडेंगे। हो सकता है कानून लाकर या पुर्नविचार याचिका दायर कर इस फैसले को चुनौति दी जाए। मगर राजनीतिक दलों की विश्वसनियता को कोर्ट का यह करारा झटका है। इतना ही नही हाल ही में बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे ने लोकसभा चुनाव में 8 करोड़ खर्च की बात क्या कही, चुनाव आयोग ने उन्हें नोटिस थमा दिया। मगर इस बात ने किसी को चैंकाया नही। इस देश में हर कोई जानता है की विधानसभा और लोकसभा चुनाव में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। यह बात दीगर है की चुनाव आयोग ने खर्च की एक सीमा तय की है मगर खुद चुनाव आयोग जानता है कि जो खर्च की सीमा उन्होने तय की है उससे आज जिला पंचायत का चुनाव भी नही जीता जा सकता। चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई प्रबंध नही कि वह चुनाव संबंधी खर्च का सही ब्यौरा जुटा सके। देश में फल फूल रहे भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण भी चुनावी प्रक्रिया में अंधाधंुध पैसे का इस्तेमाल है। आज गांव के सरपंच के चुनाव में भी लाखों रूपये पानी की तरह बहाये जा रहे है। जरा सोचिए जो लाखों करोड़ों खर्च कर चुनाव जीतते है क्या वह सार्वजनिक जीवन में ईमारदारी और सुचिता का भाव रखेंगे? यही कारण है कि केन्द्रीय सूचना आयुक्त ने राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत जानकारी देने की बात कही जो सारे राजनीतिक दल एक सुर से इसके विरोध में आ गए। विडम्बना देखिए की जिन राजनीतिक दलों ने इस कानून को ऐतिहासिक बताते हुए संसद में पारित किया वह खुद इसके दायरे में आने से डर रहे है। विरोध के पीछे तमाम कुतर्क दिए जा रहें है। सच्चाई यही है कि चुनावी चंदा भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत है। बस इसी को राजनीतिक दल जनता के सामने नही लाना चाहते। अगर राजनीतिक दल भ्रष्टाचार को लेकर इतने गंभीर है तो उन्हें सीआईसी के इस फैसले का स्वागत करना चाहिए। आदर्श स्थिति तो यह होती की राजनीतिक दल स्वयं इससे जुड़ी जानकारी जनता के सामने रखते जो की सूचना के अधिकार कानून का प्रमुख उददेश्य है। इसलिए अविलंब इस देश में चुनाव सुधार की जरूरत है। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर हमेशा सहमति जताते हैं, मगर सही मायने में चुनाव सुधार को लेकर कोई भी राजनीतिक दल प्रतिबद्ध नही। लोकपाल के लिए हुए जनआंदोलन के दौरान अन्ना ने राइट टू रिकाल और राइट टू रिजेक्ट की ओर संकेत कर चुनाव सुधारों की बरसों रूकी बहस को एक नया आयाम जरूर दिया है। सोचिए एक लोकतंत्र में यह कैसे मान्य होगा कि गंभीर अपराधों में लिप्त व्यक्ति देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था में कानून बनाने का काम कर रहा है। अब समय आ गया है कि राजनीतिक दल ऐसे लोगों से परहेज करें। हमारे देश में चुनाव सुधार पर बहस लगभग तीन दशक से ज्यादा पुरानी है। सरकार के पास सिफारिशों की एक लम्बी फेहरिस्त है। मगर जनप्रतिनिधित्व काननू 1951 में बदलाव करने की जहमत किसी ने नही उठाई। सुधारों की वकालत हर दल की जुबां पर है, मगर सवाल यह की इसे धरातल पर उतारेगा कौन। जबकि इसके लिए अब तक आधा दर्जन से ज्यादा समितियों की सिफरिशें सरकार के पास मौजूद हैं। 1975 तारकुण्डे समिति, 1990 में दिनेष गोस्वामी समिति, 1993 एनएन वोहरा समिति और 2001 में इंद्रजीत गुप्ता समिति का गठन चुनाव सुधार को उद्ेदश्य बनाकर किया गया था। इसके अलावा विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के साथ विधि मंत्रालय से जुड़ी स्थाई समिति की रिपोर्ट भी सरकार के पास मौजूद हैं। लगता है यह सिफारिशें आज भी सिर्फ सरकारी फाइलों की शोभा बड़ा रही है। दरअसल चुनाव सुधार को लेकर भारत में बहस पिछले तीन दशकों से भी पुरानी है। मगर जमीन में इसे लेकर कुछ नही हुआ। यही वजह है कि चुनाव सुधार से जुड़े मुददे आज टीवी चैनलों में गपशप से लेकर अखबार के संपादकीय तक ही सिमट कर रह गए हैं। गाहे बगाहे कुछ सनकी समाजसेवी इसे लेकर एक कार्यशाला का आयोजन कर देते हैं। मगर नतीजा वही ढांक के तीन पात। चुनाव आयोग भी कभी- कभार चुनाव सुधार करने की रट लगाता है, मगर राजनीतिक दलों के नाक भौं सिकोड़ते ही वह दुम दबा लेता है। हालांकि चुनाव आयोग ने व्यापक चुनाव सुधार को ध्यान में रखकर सरकार को 22 सूत्रीय एजेंडा सौंपा, मगर कुछ को छोडकर बाकी सुधारों पर सरकार और उसका तंत्र कंुडली मारकर बैठा है। अगर आज हमें जनप्रतिनिधियों के बारे में कुछ बातें जानने का हक तो वह सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से ही संभव हो पाया।  वरना नेताओं की जमात को यह बर्दाश्त नही होता कि कोई उनकी शिक्षा, क्रिमिनल रिकार्ड और संपत्ति के बारे में जाने। आजकल  मतदान को अनिवार्य बनाये जाने को लेकर देष में बहस छिडी हुई है। वैसे अनिवार्य मतदान दुनिया के 25 से ज्यादा देशों में लागू है। मगर भारत में इसे लागू करने को लेकर मतभेद है। गुजरात विधानसभा ने निकाय और पंचायत चुनावों में मतदान को अनिवार्य बनाने के लिए कानून में संशोधन किया, मगर राज्यपाल ने उसे वापस सरकार को लौटा दिया। इसमें मतदाता को ‘इनमें से कोई नही‘ का अधिकार देने का भी प्रावधान था। वही लोकसभा में लाए गए एक निजि विधेयक ‘अनिवार्य मतदान कानून 2009‘ में जोरदार बहस हुई। लगभग सभी राजनीतिक दलों ने गिरते वोट प्रतिशत पर चिंता प्रकट करते हुए मतदान को अनिवार्य बनाने की बात कही। लेकिन फिलहाल यह मुददा दूर की कौड़ी नजर आ रहा है। खुद पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त नवीन चावला इसे अव्यवहारिक करार दे चुके है। मगर वर्तमान में चुनौतियां जबरदस्त है। 27 अक्टूबर 2006 को मुख्य चुनाव आयुक्त भारत के प्रधानमंत्री को खत लिखकर कहते हैं कि अगर जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 में बदलाव नही किया गया तो वह दिन दूर नही जब लोकसभा और विधानसभा में दाउद इब्राहिम और अबू सलेम जैसे लोगों के पहुंचने का गंभीर खतरा है। इसलिए किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोर्ट ऐसे गंभीर आरोप तय करता है, जिसकी सजा 5 साल से ज्यादा है तो उसे चुनाव लड़ने के लिए अवैध करार दिया जाए। फिर उसके खिलाफ मामले में सुनवाई ही क्यों न चल रही है। दरअसल हमारे देश में जब तक कोर्ट किसी व्यक्ति को दोषी करार नही दे देता तब तक उसके चुनाव लड़ने में प्रतिबंध नही है। एक लोकतंत्र के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि कानून तोड़ने वाले कानून बनाने वाली संस्था का हिस्सा बन बैठे हैं। आज जरूरत है कि हर कीमत पर राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोका जाए। हमें विचार करना होगा की चुनावों में पैसों के बेताहाशा इस्तेमाल पर कैसे अंकुश लगे। आयाराम गयाराम की परंपरा को कैसे रोका जाए। पेड न्यूज के बड़ते चलन पर पर कैसे रोक लगे। एक व्यक्ति लोकसभा का चुनाव हार जाता है तो राजनीतिक दल उसे राज्यसभा के लिए मनोनीत करते हैं। क्या यह जनता के मत का अपमान नही है? एक व्यक्ति को एक ही जगह से चुनाव लड़ने की अनुमति दी जाए। जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने के विकल्प पर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए। हाल के दिनों में विधि मंत्रालय ने चुनाव सुधार के कुछ छोटे मोटे सुधारों पर मुहर लगाई है। मगर जमानत राशि बढ़ाने और चुनाव पूर्व अनुमान लगाने जैसे कदमों पर रोक लगाने से कुछ नही होगा। जरूरत इस बात की है कि सरकार आज सभी राजनीतिक दलों के बीच चुनाव सुधारों के लेकर आम सहमति बनाये और इसे लागू करे। नही तो वह दिन दूर नही जब फिर एक जन आंदोलन खड़ा होगा और सरकार और संसद को जनभावनाऐं सुधार के लिए विवश कर देंगी।



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