बुधवार, 24 जुलाई 2013

गरीब के आंकलन की सोच में इतनी गरीबी क्यों ?

कौन गरीब? कितने गरीब? गरीब वह नही है जो प्रतिदिन अपने दिनचर्या के लिए शहरों में 33.30 रूपया और गांव में 27.20 रूपये खर्च कर सकता है। सरकार ने गरीबी का यह नया आंकड़ा जारी किया है। 2004-05 के मुताबिक देश में गरीब की संख्या 37.25 फीसदी थी। अब यह घटकर 22 फीसदी के आसपास हो गया। यह चमत्कार यूपीए सरकार के 7 साल की अवधि में हुआ है। इससे पहले योजना आयोग ने गांव में 26 रूपये और शहर में 32 रूपये कमाने वाले को गरीब नही माना था। यह दरियादिली योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जमा हलफनामे में दिखाई थी। गौर करने की बात यह है कि यह हलफनामा पहले के 15 रूपये गांव में और 20 रूपये शहरों में खर्च करने की क्षमता में बदलाव करके किया गया है। लगता है आज हमारे नीतिनिर्माताओं की सोच गरीबों से ज्यादा गरीब हो गई है, इसलिए तो इस तरह का आंकलन निकलकर सामने आया। क्या यह गरीब के साथ सहानुभूति जताने के बजाय उसका सार्वजनिक अपमान है। अब जरा रिपोर्ट में आंकड़ेबाजी के मकड़जाल को समझते हैं। इसके मुताबिक एक दिन में एक आदमी प्रतिदिन अगर 5.50 रूपये दाल पर, 1.02 रूपये चावल रोटी पर, 2.33 रूपये दूध पर, 1.55 रूपये तेल पर, 1.95 रूपये साग- सब्जी पर, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्य खाद्य पदार्थो पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। साथ में एक व्यक्ति अगर 49.10 रूपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नही कहा जाएगा। योजना आयोग की मानें तो स्वास्थ्य सेवाओं पर 39.50 रूपये प्रतिदिन खर्च करके आप स्वस्थ्य रह सकते हैं। शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च कर आप शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं। अगर आप प्रतिमाह 61.30 रूपये और 9.6 रूपये चप्पल और 28.80 रूपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं हैं। आयोग ने यह डाटा बनाते समय 2010-11 के इंडस्टीयल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और सुरेश तेंदुलकर कमिटि की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का हिसाब किताब दिखाने वाल रिपोर्ट को आधार बनाया है। सवाल उठता है की गरीब के आंकलन में नीतिनिर्माताओं की सोच इतनी गरीब कैसे? क्या यह इस देश के गरीबों के खिलाफ साजिश तो नही। कहीं उन्हें सरकारी योजनाओं के अलग करने की कोशिश तो नही। अभी जो व्यवस्था है उसके तहत योजना आयोग गरीबी रेखा के लिए मापदंड तैयार करता है और राज्य सरकार उसके आधार पर गरीबों का चयन करती है। राज्य सरकारें केन्द्र पर हमलावर हैं कि उनके यहां गरीबों का संख्या ज्यादा है। उदाहरण के तौर पर बिहार में जारी बीपीएल कार्ड की संख्या 1.40 करोड़ है जबकि योजना आयोग सिर्फ 65.23 लाख लोगों को ही गरीब मानता है और इसी आधार पर बिहार को केन्द्रीय पूल से पीडीएस के लिए खाद्यान्न का आवंटन होता है। इसी तरह मध्यप्रदेश में 60 लाख लोग गरीब है जबकि योजना आयोग 41.25 लोगों को गरीब मानता है। इसके अलावा अब तक पूरे देश में 1.80 करोड़ से ज्याद फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके हैं। दुख की बात तो यह है कि राज्यों ने 17.5 फीसदी ऐसे लोगों को बीपीएल राशन कार्ड जारी कर रखें है जो अमीर हैं और 23 फीसदी जरूरतमंदों के पास राशन कार्ड उपलब्ध नही है। सवाल यह कि की गरीबों की इस सूची में भारी हेरा फेरी के लिए कौन जिम्मेदार है। जरूरत है कि आंकड़ों के भ्रमजाल से निकलकर नीतिनिमार्ताओं को गरीबी मांपने का एक आदर्श और व्यवहारिक पैमाना अपनाना चाहिए। गरीब के आंकड़ों का आलम यह है कि जितने मुंह उतनी बातें। एनएसएसओ के मुताबिक 27.5 फीसदी तेंदुलकर समिति 37.2 फीसदी, सक्सेना समिति 50 फीसदी, अर्जुन सेन गुप्ता समिति 78 फीसदी, विश्व बैंक 42 फीसदी और एशियाई विकास बैंक 41.5 फीसदी को हमारे मुल्क में गरीब मानता है। इन सब आकंडों का स्रोत नेशनल सैंपल सर्वे है मगर गरीबी मापने का मापदंड अलग है। मसलन विश्व बैंक का मापदंड 1.25 डालर है। क्या सरकार सही आंकड़ा अपनाने से नही हिचकिचा रही है। क्योंकि यह उसकी समग्र विकास के नारे की हवा निकाल देगा। एक बात तो सच जान पड़ रही है कि हमारे देश में आर्थिक सुधार के इस दौर में गरीबी घटने के बजाय बढ़ रही है। दरअसल विकास दर का उलझा हुआ गणित जितना बताता है उससे कही अधिक छिपाता है। जबकि गरीबी न घटने के पीछे सीधा कारण सामाजिक क्षेत्र में कम खर्च है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 फीसदी जनता स्वास्थ्य का खर्च अपने जेब से उठाती है। इसका मुख्य कारण है कि स्वास्थ्य क्षेत्र हमारा खर्च केवल 1.04 फीसदी है जो विकासशील देषों के 3 फीसदी और विकसित देशों के 5 फीसदी से बहुत पीछे है। ब्रिटेन की एक प्रतिष्ठित पत्रिका लेंसेट के मुताबिक भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च के चलते 3.70 करोड़ सालाना लोग गरीबी हो जाते है। इसलिए जरूरी है की शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक विकास और बुनियादी ढांचे में न सिर्फ खर्च बढ़ाया जाए बल्कि जारी किए गए पैसे का बेहतर इस्तेमाल भी हो। हमारे देश में सब्सिडी का बड़ा भाग जरूरमंदों तक नही पहंुच पाता। 2010-11 के आर्थिक समीक्षा की मानें तो 51 फीसदी पीडीएस राशन कालेबाजार में बिक जाता है। उत्तरपूर्व में यह आंकड़ा तो 90 फीसदी के आसपास है। अब सवाल है कि इसे रोका कैसे जाए। कुछ सुझाव सामने है जिसमें सबसे उपर सीधे जरूरत मंदों के खातों में नकदी का आहरण है। इसपर काम भी चल रहा है। ब्राजील जैसे देशों में यह व्यवस्था कुछ शर्तों के साथ लागू भी है। ब्राजील में भोलसा परिवार कार्यक्रम के नाम से इसे चलाया जाता है। इसके तहत पात्र व्यक्तियों को बच्चों को स्कूल भेजने की अनिवार्यता के साथ साथ टीकाकरण कराना भी आवश्यक कर दिया है। इसका नतीजा भी निकलकर सामाने आया। ब्राजील में 2003-2009 के बीच 2 करोड़ लोग न सिर्फ गरीबी रेखा से निकलकर बाहर आये बल्कि उनकी कमाई में 7 गुना बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। सीधे नकदी आहरण एक अच्छा विकल्प है लेकिन संभव कैसे होगा। हमारे देश में 40 फीसदी आबादी के पास ही बैंक खाते उपलब्ध है। लिहाजा सरकार को बैंकों के विस्तार में तेजी से कदम बड़ाना होगा। साथ की संतुलित विकास की नीव रखनी होगी। सिर्फ उच्च विकास दर का सपना दिखाकर काम नही चलते वाला। ऐसी नीतियों को लागू करने की आज दरकार है जो किसी भी व्यक्ति को समाज में सम्मान से जीने का अवसर प्रदान करे। 12वीं पंचवर्षिय योजना एक बेहतर अवसर है जब हम अपनी मौजूदा नीतियों का आंकलन कर उसमें जरूरी बदलाव कर उसे बेहतर क्रियान्वयन की दिशा में कदम उठाये। इतना ही नही इस देश में खर्च और परिणाम को लेकर भी एक ईमानदार बहस की शुरूआत होनी चाहिए। आखिर में वर्तमान व्यवस्था में बिना बदलाव किए हम अगर खाद्य सुरक्षा कानून को पारित करते है तो इसका हश्र भी दूसरी योजनाओं की तरह की होगा।
जो भूख मिली सौ गुना बाप से अधिक मिली
अब पेट फैलाये फिरता है, चैरा मुंह बायें फिरता है,
वो क्या जाने आजादी क्या, आज देश की बातें क्या।

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