गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

संसद से सवाल

क्या संसद सही मायने में लोकतंत्र की पहरेदार है?
क्या यह आवाम की आस्था का मन्दिर है?
क्या किसी भी मायने में यह देश की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था है?
क्या देश के विकास की नींव यहां रखी जा रही है?
क्या चुने हुए प्रतिनिधी यहाॅ अपनी आवाज बुलन्द कर पाते हैं?
क्या जनता के जुडे मुददों पर सार्थक बहस हो पा रही है?
क्या देश के लिए संसद कानून बना पा रही है?
क्या संसद का सबसे महत्वपूर्ण घंट प्रश्नकाल चल पा रहा है?
यह सारे सवाल उठना लाजमि है। अगर संसद में कानून नही बन सकते, चर्चा नही हो सकती, सांसद अपने क्षेत्र के मुददे नही उठा सकते। तो इस संसद को बुलाने का औचित्य क्या है। अगर यह रस्मअदायगी है तो इसमें हर घंटे में जनता की गाड़ी कमाई के 26 लाख बर्बाद होते हैं। सवाल उठेंगे कि आखिर संसद किसके लिए है। आखिर में सबसे ज्यादा जरूरी विरोध की सीमा क्या होनी चाहिए? संसद में आज के घटनाक्रम ने  सबको शर्मसार कर दिया। मगर कार्यवाही के नाम पर हुआ निष्कासन। यानि आगे भी यह सब देखने को मिलेगा। अगर आज की इन्हें संसद और चुनाव लड़ने से अयोग्य कर दिया जाता तो शायद एक अच्छी नजीर पेश होती। मगर संसद एक उदाहरण पेश करने में चूक गई। अब इस चूक का नुकसानआने वाली पीड़ी को उठाना पड़ेगा। सरकार की नाकामी तो जगजाहिर है, जिसने सबकुछ जानते हुए भी अपने प्रबंधन की दुरूस्त नही किया। 15 वीं लोकसभा का कामकाज अब तक के सबसे निचले स्तर का है। पूरे 5 साल में 35 फीसदी से भी कम संसद चली। इसलिए समय रहते इस बीमारी का निदान जरूरी है।

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