सोमवार, 14 अप्रैल 2014

मेरा वोट, मेरी हुकूमत पार्ट- 1

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व अपने उफान पर है। जनादेश पाने के लिए राजनीतिक दलों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है। हर हाल में सत्ता के करीब पहुंचने  की चाहत में राजनेता कोई कोर कसर बाकी नही छोड़ना चाहते। आम चुनावों की ही तरह विकास और स्वच्छ प्रशासन देने के वादे करने में नेता कोई कोताही नही बरत रहें है। इस चुनाव को मीडिया ने भी हाथों हाथ लिया है। पहले रैलियों में भाषणों को इतनी तरजीह नही दी जाती थी मगर इस बार हर रैली को टेलिविजन में लाइव काटा जा रहा है। राजनेता जनता से जुड़ी बात कर खूब ताली बटोर रहें हैं। मतदाता भी शांति से हर किसी को सुना रहा है। मगर अपनी फैसला वोट से कर रहा है। 16 लोकसभा का चुनाव कई मायने में अहम है। खासकर परिवर्तन के नाम पर लड़े जा रहे इस चुनाव में बढ़ते मतदान प्रतिशत पर हर किसी की नजर है। राजनीतिक विश्लेषक बढ़ते मतदान प्रतिशत के पीछे सत्ता विरोधी रूझान को मानते है। यानि लोग मौजूदा सरकार के कामकाज़ से नाखुश हैं और परिवर्तन चाहते हैं। मगर हाल ही में हुए कुछ चुनावों ने इस मिथ को भी तोड़ा है। खासकर भारत जैसे बड़े देश में जहां चुनाव बहुकोणिय होते है अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है। मगर जिस तरह से शुरू के चार चरणों में जनता ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया है, उससे एक बात तो साबित हो गई है कि देश का मतदाता राजनीतिक क्रियाक्लापों से अंजान नही। बस वह चुपचाप अपने वोट की ताकत का इस्तेमाल कर रहा है। यही कारण है कि दिल्ली में 1984 के बाद पहली बार लोगों ने इतने बड़े पैमाने में अपने वोट का इस्तेमाल किया है।  दिल्ली में 2009 में 51.85 फीसदी वोट बड़े जबकि इस बार यह बढ़कर 64.77 प्रतिशत रहा। तकरीबन 13 प्रतिशत मतदान ज्यादा हुआ है। देश की राजधानी 15वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान कई आंदोलनों की गवाह बनी। लोगों पर आरोप भी लगें की कैंडल मार्च निकालने वाले आखिर वोट देने में दिलचस्पी क्यों नही दिखाते? खासरकार भ्रष्टाचार विरोधी लहर से जुड़ा आंदोलन हो या निर्भया के लिए इंसाफ मांगने की लड़ाई। आम आदमी ने अपनी ताकत का एहसास हुक्मरानों को करा ही दिया। मगर अच्छी बात यह रही कि विधानसभा चुनावों में भी मतदान का प्रतिशत ऐतिहासिक रहा। इसी तरह केरल में भी 76 फीसदी लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया जो 2009 में 73.33 प्रतिशत था। जोश हरियाणा के मतदाताओं ने भी दिखाया जिन्होने पिछले लोकसभा चुनाव से 5.51 फीसदी ज्यादा मतदान किया। सबसे चैंकाने वाली स्थिति उत्तरप्रदेश और बिहार में दिखाई दी। ये राज्य कम मतदान के लिए जाने जाते हैं। मतलब 2009 में उत्तरप्रदेश में 52.22 फीसदी लोगों ने वोट नही डाला। यानि आधे से ज्यादा मतदाताओं ने चुनाव में अपनी सबसे बड़ी ताकत वोट का इस्तेमाल नही किया। इस बार इसमें सुधार आया है ओर इसका प्रतिशत गिरकर 35 फीसदी हो गया। खासकर तीसरे चरण में पश्चिमी उत्तरप्रदेश की 10 सीटों में 65 फीसदी मतदान हुआ। यानि वोटरों ने अपने मत का प्रयोग कर साफ कर दिया है तमाम नाराजगियों के बावजूद उनका लोकतंत्र की इस प्रणाली पर विश्वास कायम है। इसी तरह बिहार में वोट करने वालों की तादाद 2009 में 44.46 फीसदी रही जो इस बार तीसरे चरण के मतदान की 6 सीटों पर 53 फीसदी रहा। बात चाहे पूर्वोतर की हो या उत्तर भारत की। हर जगह बढ़ता मतदान प्रतिशत रोमांचित करने वाला है। तमाम निराशओं के बीच भारत का मतदाता उम्मीद की डोर बांधे रखा हुआ है। खासकर युवा वर्ग जो नेताओं से वादे नहीं नतीजे चाहता है। वह भाषण नही काम चाहता है। इसलिए हर राजनीतिक दल इस वर्ग को लुभाने की कोशिश में जी जान से जुटा है। हमें नही भूलना होगा कि भारत में 80 करोड़ लोग 35 वर्ष से कम आयु के हैं।  आज भी वह इसी इंतजार में है कि हो सकता है अगली सुबह कोई अच्छी खबर लेकर आएगी। अविश्वास की आंधी के बीच उसके विश्वास की लौ कम जरूरी हुई, मगर उसने उसे बुझने नही दिया। चाहे वह महंागई से परेशान गृहणी हो, या बेरोजगारी से परेशान युवा, भ्रष्टाचार से परेशान नागरिक हो, या अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित आधी आबादी। अपने खेत से निकलने वाले घाटे को सहने वाला किसान हो या बदलाव का इंतजार करता भारत का आमजनमानस। हर कोई बदलाव को लेकर आश्वस्त है। शायद विश्वास करने के बजाय उसके पास कोई विकल्प नही है। अगर यह जोश बाकी के चरणों में भी कायम रहा तो यह चुनाव ऐतिहासिक हो जाएगा। अगर राज्यवार 2009 के वोटिंग पर नजर घूमाई जाए तो सबसे ज्यादा पश्चिम बंगाल ने चैंकाया। 81.3 प्रतिशत लोगों ने अपने मत का प्रयोग किया जबकि सबसे कम मतदान 39.5 प्रतिशत जम्मू कश्मीर में हुआ। चैंकाने वाला तथ्य यह है कि बिहार और गुजरात जहां नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री थे, वहां के मतदाताओं में जोश की कमी दिखी। खासरकर तब जब नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार दोनों लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे। मगर लोकसभा चुनाव में बिहार में 44.5 फीसदी जबकि गुजरात में 47.8 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला। अगर लोकसभा चुनावों को मतदान प्रतिशत से देखा जाए, तो 1952 में 61 प्रतिशत, 1967 में 61 प्रतिशत, 1971 में 55 फीसदी, 2004 में 48 फीसदी तो 2009 में   वोट पड़े। मगर लगता है कि 2014 के आम चुनावा पुराने रिकार्डो पर भारी पड़ेंगे। एक बात गौर करने की यह है कि देश में इस वक्त लोगों में एक जबरदस्त निराशा का माहौल है। लोग महंगाई भ्रष्टाचार बेरोजगारी और सुरक्षा के लिहाज़ से सरकार के कामकाज़ से नाखुश है। खासाकर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान लगा की जनता का राजनेताओं से भरोसा उठने लगा है। राजनीति की घटती साख को घटते मतदान प्रतिशत के पीछे सबसे बड़ी वजह माने जाने लगा। लोगों को लगता था की राजनेता सिर्फ सब्ज़बाग दिखाते है जो हकीकत कोसों दूर है। मगर वर्तमान में लोगों ने अपने विश्वास को जगाया है। इसके पीछे चुनाव आयोगी की पहल का भी स्वागत करना चाहिए। जिसने मतदाता को वोट की ताकत का एहसास कराया। 2009 में चुनाव में खर्च 1200 करोड़ रूपये हुआ। इस बार यह अनुमान 1500 करोड़ के आसपास है। यानि 2009 में प्रति वोटर चुनाव आयोग ने 33 रूपये खर्च किए। बावजूद इसके आधे मतदाता अपने मत का प्रयोग नही करते जो लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नही। इस मुददे को लेकर लोकसभा में निजि विधेयक में चर्चा के दौरान अनिवार्य मतदान पर बहस हुई। सभी सांसदों ने इस पर चिंता जाहिर की। उन मुददों पर गौर किया गया जिसकी वजह से वोटिंग का प्रतिशत कम हो रहा है। मगर उपाय जहां से निकलना था, वहां सिर्फ और सिर्फ हंगामा होते रहा। संसद बमुश्किल चल पाई। पूरे पांच साल भ्रष्टाचार के एक के बाद एक मुददे आते गए। महंगाई हर रोज नए रिकार्ड बनाती गई। अर्थव्यवस्था लगातार कमजोर हो रही थी। यूपीए सरकार का दूसरे कार्यकाल में मनोबल लगातार कमजोर हो रहा था। सरकार का पूरी ताकत अपने को बचाने में लगी रही। इन सबके बीच न महंगाई पर लगाम लगी न ही सरकार अर्थव्यवस्था के हालत को दुरूस्त करने के लिए कुछ कर पाई। बची खुची कसर सप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियों ने पूरी कर दी। यानि पूरे कार्यकाल में केवल शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और जमीन अधिग्रहण कानून को छोड़कर देखा जाए तो सरकार बैकफुट में नजर आई। यह लोगों का गुस्सा ही था जो 2013 में हुए पांच राज्यों के चुनावों में नजर आया। जनता ने कांग्रेस को मिजोरम को छोड़कार बाकी सब जगह परास्त कर दिया। राजस्थान में तो कांग्रसे का सूपड़ा साफ हो गया। दिल्ली में उसकी सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री को अरविन्द केजरीवाल ने हरा दिया। इन सब राज्यों में ऐतिहासिक वोटिंग हुई। कहने का तात्पर्य यह है की बढ़ता मतदान प्रतिशत न सिर्फ लोकतंत्र के लिए हितकर है बल्कि लोगों के भरोसे की एक जीत भी है। मगर साथ में एक चेतावनी भी, कि अगर बदलाव की वाहक सरकार नही बनी तो जनता को उसे उखाड़ फेंकने में ज्यादा वक्त नही लगेगा।

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