शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

लोकतंत्र से भ्रष्टतंत्र तक

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र या लूटतंत्र आप फैसला करिए। विधायिका कार्यपालिका न्यायपालिका और मीडिया कोई भी ऐसा पक्ष नही जिस पर जनता आंख बंद कर विश्वास कर सके। सब देष को लूटने में लगे हैं। सार्वजनिक जीवन में सदाचार की बातें करने वाले नेताओं की तिजोरियां लबाबलब भरी रहती हैं। और हो भी क्यों न राजनीति में आने का और क्या मकसद है। बेवकूफ तो हम इन्हें अपना जनप्रतिनिधि कहते है। नाम बदलों मित्रों यह धनप्रतिनिधि है। करोड़ों खर्च कर चुनाव जीतकर आने का मतलब यह कतई नही इन्हें समाज सेवा का चश्का है। दरअसल इन्हें नोट कमाने का चश्का है। और यही हो रहा है। जरा सोचिए जब उच्च पद पर बैठा मंत्री भ्रष्ट है तो उसके नीचे के हालात क्या होंगे। राज्य का मुख्यमंत्री अगर भ्रष्ट है तो राज्य का क्या हाल होगा। हालात इतने खराब हो चुके है कि विश्वसनियता का संकट शुरू हो चुका है। किसपर भरोसा करें समझ में नही आता। भ्रष्टाचार आज षिष्टाचार का रूप ले चुका है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि जायज काम कराने के लिए भी घूस देनी पड़ रही है। दैनिका जीवन में यह कैंसर घुलमिल गया है। अगर हालात से निपटना है तो कुछ कड़े फैसले लेने होंगे। शुरूआत नेताओं से की जानी चाहिए। जिन नेताओं ने अनापशनाप पैस कमा रखा है उनपर नकेल कसी चाहिए। एक शिक्षा और स्वस्थ्य सुधार नामक कोष बनाकर इनकी अवैध कमाई की सारी राशि उसमें डाली जाए। चुनाव में होने वाले बेताहाशा खर्च पर रोक लगाई जाए। अकेले 15वी लोकसभा चुनाव में 10 हजार करोड़ रूपये खर्च हुए। जरा खर्चो के ब्यौरे पर एक नजर डालिए।
चुनाव आयोग     1300 करोड़
केन्द्र और राज्य   700 करोड़
राजनीतिक दल   8000 करोड़
पहला सवाल इतना पैसा आता कहां से है और दूसरा खर्चीले चुनाव के पीछे का मकसद। जाहिर है पैसा कारपोरेट जगत से आता है। सवाल यह कि इस चंदे के बदले वह कितना चंदा वसूलते होंगे। आज इस देश के पास एक मौका है भ्रष्टाचारियों के खिलाफ एक निर्णायक जंग छेड़ने का। शुरूआत राजा और कलमाड़ी से की जाए। मगर इस देष में ऐसे करोड़ों राजा और कलमाड़ी हैं। बदलना है तो इस व्यवस्था को बदलों जिसका फायदा यह लोग उठाते है।

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