रविवार, 27 नवंबर 2011

सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून की समीक्षा जरूरी


सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को लेकर जम्मू  कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेस आमने समाने आ गए हैं। राज्य में कांग्रेस के वरिेष्ठ नेता और प्रदेश अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज ने उमर अब्दुल्ला पर आरोप लगाया है कि सहयोगी दल होने के बावजूद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस मामले पर उनकी राय तक जाननी जरूरी नही समझी। उनकी अनदेखी की है। गौरतलब है की राज्य में कांग्रेस और नेशनल कांग्रेस का गठबंधन है। हाल ही में मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राज्य के कुछ हिस्सों से अशांत क्षेत्र अधिनियम और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की बात कही थी। वैसे यह पहला मौका नही जब उमर इस कानूून को हटाने की पैरवी कर रहें हों। इससे पहले भी वह कई बार इस कानून को राज्य से हटाने की बात कह चुके हैं। मगर हर बार आमसहमति न बनने के कारण इस मामले पर फैसला नही हो पाता था। खासकर रक्षा मंत्रालय के ऐतराज के चलते गृहमंत्रालय इस मुददे पर फैसला लेने में असमर्थ रहा। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 में अस्तित्व में आया। इस कानून में सुरक्षा बलों को आतंकवादियों से निपटने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं। मसलन वह बिना वारंट के सर्च कर सकतें है। किसी भी गिरफतारी की जा सकती है। पूछताछ की जा सकती है यहां तक की संदेह की स्थिति में गोली तक  मारने का प्रावधान है। मगर उनके उपर मुकदमा या कारवाई बिना केन्द्र सरकार की अनुमति से नही हो सकती। इसी के चलते इस कानून का जम्मू कश्मीर सहित पूर्वोत्तर राज्यों खासकर मणिपुर में लम्बें समय से प्रबल विरोध हो रहा है। मगर इस कानून के रहने या न रहने पर राय बंटी हुई है। सेना जहां इसके पक्ष मे है वहीं मानवाधिकार संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता इसे काले कानून की संज्ञा देते हुए इसे तत्काल हटाने के लिए संघर्षरत है। उनके मुताबिक यह लोगों को मारने के एक तरह से वैध लाइसेंस है जबकि सेना का कहना है इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिए उसे इस तरह के अभेद्य कवच की आवश्यकता है। इन सब के बीच कुछ ज्वलंत सवालों का जवाब तलाशना जरूरी है। क्या एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसे कानून जो सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देंते हों, ऐसे कानून को जायज ठहराया जा सकता है? क्या वाकई एएफएसपीए के बिना मणिपुर और दूसरे राज्यों में उग्रवाद का सामना नही किया जा सकता? कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई जस्टिस जीवन रेड्डी समिति की सिफारिशों का क्या हुआ? इस कानून की समीक्षा कर इसे और मानवीय नही बनाया जा सकता जैसा की 2006 के असम दौरे में प्रधानमंत्री ने यह बात कही थी अपने दौरे में प्रधानमंत्री ने नवंबर दौरे में कही। सवाल उठता है कि कानून लागू होने की आधी सदी के बाद भी पूर्वोत्तर में आतंकवादी समस्याओं का समाधान क्येां नही हेा पा रहा है?
क्या मणिपुर की तकलीफ, रेड्डी समिति की सिफारिश और इरोम शर्मिला के अनषन की अनदेखी की जा सकती है? इरोम चानू शर्मिला नवंबर 2000 से भूख हड़ताल में हैं। उनके इस भूख हड़ताल को 11 साल बीत चुके हैं। 2004 के उस मंजर को कौन भूल सकता है जब इस कानून के विरोध में मणिपुर के कांगला किले में महिलाओं ने नग्न प्रदर्शन किया था जिसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत हुई। खासकर मणिपुर में जहां इस कानून का भारी विरोध होता रहा है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को लागू करने से पहले राज्यपाल उस क्षेत्र को अशांत घोषित करना होता है। उसके बाद वहां अर्धसैनिक बलों की तैनाती की जाती है। यह पूरा मामला 2004 में तब सूर्खियों में आया जब असम राइफल्स के जवानों के उपर मनोरमा देवी के बलात्कार और हत्या का आरोप लगा। इसी के बाद जस्टीस जीवन रेड्डी समिति का गठन किया जिसके रिपोर्ट गृह मंत्रालय के पास मौजूद है। मगर इस बार जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री  उमर अब्दुल्ला के बयान के समय को लेकर कई बाते कही जा रही है। मौजूदा समय में उमर अब्दुल्ला मुश्किल दौर में चल रहे है। उनपर कई गंभीर आरोप लगे। राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी पीडीपी ने तो उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। साथ ही कांग्रेस और उनके बीच के रिश्ते भी अच्छे नही चल रहें है। इसकी बानगी हाल में राज्य में राहुल गांधी के दो दिन के दौरे पर भी देखने को मिली। मुख्यमंत्री के खिलाफ पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराजगी के चलते राहुल गांधी उमर अब्दुल्ला के रात्रि भोज में तक में षामिल नही हुए। कहा यह भी गया की कांग्रेस में मौजूद एक बड़ा तबका चाहता है कि राज्य में तीन साल मुख्यमंत्री नेशनल कांफ्रेस का हो और तीन साल कांग्रेस का बने। मतबल  पिछले कार्यकाल में कार्यकाल की ही तरह इस बार भी तीन तीन साल में मुख्यमंत्री रोटेट हो गौरतलब है कि यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उमर अब्दुल्ला को पूरे 6 साल तक काम करने की हरी झंडी दी थी। मगर उमर अब्दुल्ला की कार्यषैली और आए दिन उनके विवादों में फंसने के चलते  अब हाईकमान उनके काम की समीक्षा का मन बना रहा है। उमर अब्दुल्ला अगले साल जनवरी में अपने 3 साल पूरे करने जा रहे हैं। ऐसे में यह मांग जोर पकड़ने लगी है कि बाकी बचे तीन साल के लिए कांग्रेस अपनी मुख्यमंत्री बनाए। इसलिए कुछ लोगों का कहना है कि इन हालातों से ध्यान बंाटने  के लिए उमर अब्दुल्ला ने यह पासा फेंका है। वैसे जम्मू कश्मीर में इस साल हालात बाकी सालों के मुकाबले बेहतर रहे हैं। सैलानियों के आवागमन और कानून व्यवस्था की स्थिति सामान्य रही है। मगर सवाल उठता है कि क्या राज्य पुलिस इन हालातों को बनाए रखने में सक्षम है। क्या सीमा पार आतंकवाद रूक गया है। खासकर कश्मीर की भूगौलिक परिस्थिति को देखते हुए यह लगता नही की पुलिस वहां की कानून व्यवस्था को संभालने में सक्षम है। मगर एक प्रयोग के चलते राज्य के कुछ क्षेत्रों में इस कानून को हटाने पर गंभरता से विचार किया जा सकता है। यह जनता के बीच विश्वास बहाली को लेकर भी अहम कदम साबित होगा। मगर इसके लिए जरूरी है कि इससे जुड़े सभी पक्षों खासकर सेना की सहमति होना जरूरी है। क्योंकि आज जम्मू  कश्मीर में हालात सामान्य हुए है तो उसके लिए सेना की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। जहां तक बात मानवाधिकार हनन का है तो सेना की ओर से यह कहा जाता है कि बीते तीन दशक मे उनके पास तकरीबन तो जो 1500 षिकायतें आई उनमें से 97 फीसदी झूठी थी और बाकी मामलों में उन्होन कारवाइयां की हैं। अगर गृहमंत्रालय इस पर गंभीरता से विचार करता है तो उसे मणिपुर में भी इस कानून की समीक्षा पर विचार करना चाहिए। चंूकि जम्मू कश्मीर में अगर यह प्रयोग किया जाता है मणिपुर में इसे हटाने की आवाज और बुलंद होगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें