मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

कृषि ऋण में सुधार जरूरी

बजट 2011- 12 में सरकार ने  कृषि  ऋण का लक्ष्य 4.75 लाख करोड़ रखा है। यह पिछले साल के मुकाबले 1 लाख करोड़ ज्यादा है। ऋण खेती की एक बुनियादी आवश्यकता है। खासकर भारत जैसें देश में जहां 81 फीसदी किसान 1 हेक्टेयर से कम जोत का मालिक है। लिहाजा बीज की बुआई से लेकर कटाई तक तक उसे धन की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए उसे बैंको से ऋण लेना पड़ता है। आज  सरकार 3 लाख तक का फसल लोन सालाना 7 फीसदी के ब्याज़ दर पर दे रही है। प्रावधान यह किया गया है कि समय से कर्ज भुगतान करने वाले किसानों को 3 प्रतिशत की ब्याज में छूट दी जाएगी।  यहां गौर करने लायक बात यह है कि कृषि मंत्रालय से जुड़ी स्थायी समिति ने फसल लोन की राशि को 3 लाख से बढ़ाकार 5 लाख करने की सिफारिश की थी। इसके पीछे सबसे बड़ तर्क है किसान की खेती में लागत आज कई गुना बढ़ चुकी है। मतलब पहले के मुकाबले आज किसान को उत्पादन में ज्यादा खर्च करना पड़ता है। राष्ट्रीय किसान आयोग पहले ही किसान को 4 फीसदी की ब्याज दर पर कर्ज देने की सिफारिश कर चुका है। यह इसलिए भी जरूरी है की देश की खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने वाला किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। वैसे भी ज्यादातर अनुमानों ने यह साफ किया कि देष में किसानों की बढ़ती आत्महत्या के लिए कर्ज जिम्मेदार है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 1997 से लेकर 2007 तक 2 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। इसमें से ज्यादातर किसानों ने इसलिए आत्महत्या की क्योंकि वह कर्ज के बोझ तले दबे थे। खेत में उपजी फसल से आमदनी इतनी भी नही की परिवार का गुजर बसर हो सके। फिर कर्ज का भुगतान कहां से करें। इसी को ध्यान में रखकर 2008 में केन्द्र सरकार कर्ज माफी योजना सामने लेकर आई। कहा जाता है कि इससे तकरीबन 4 करोड़ किसानों को फायदा पहुंचा। वैसे इस पूरे फैसले पर गौर करें तो ऐसा लगता है की सरकार ने एक तीर से तीन निषाने साधे। पहला किसानों का ऋ़ण माफ कर उन्हें राहत पहुंचाई। दूसरा बैंकों का खराब वित्तिय हालात में नई जान फंूकी और तीसरा चुनाव में जाने के लिए एक मजबूत मुददा तैयार किया। इसका फायदा भी मनमोहन सरकार को मिला। 2004 में 145 सीटें जीतेन वाली कांग्रेस 2009 में 206 सीटों में जीती। मगर ज्यादातर लोगों ने सवाल उठाया कि उनका क्या जिन्होने साहूकारों से कर्ज ले रखा है। इसी को ध्यान में रखकर सरकार ने 3 साल पहले एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था  जिसका जिम्मा था कि पूरे देष में कितने किसानों ने साहूकारों  से कर्ज ले रखा है। पहले यह केवल महराष्ट्र के किसानों के लिए सीमित था बाद में इसे  पूरे देश के लिए व्यापक अध्ययन करने को कहा गया है। उदाहरण के तौर पर सरकार ने विदर्भ क्षेत्र के लिए एक स्पेशल पैकेज की घोषणा की। इसमें 6 जिलों को शामिल किया गया।  यवतमाल, अमरावती, अकोला, वाशिम, बुल्धाना और वर्धा जिले को यह राशि ध्यान में रखकर दी गई। मगर वसंत राव नायक शेठठ्ी स्वालंभन मिशन के मुताबिक उन 6 जिलों में 17 लाख 64 हजार किसानों में से महज 4 लाख 48 हजार किसानों ने बैकों से कर्ज ले रखा था। यानि 75 फीसदी किसानों ने साहूकारों और व्यापारियों से कर्ज ले रखा था। तो उनको कैसी कर्ज माफी की राहत। इसके अलावा जुलाई 2006 में चार राज्यों के जिन 31 जिलों को ध्यान में रखकर पैकेज दिया गया उसका भी कोई बडा फायदा किसानों तक नही पहुंचा। बहरहाल अच्छी खबर यह है कि कृशि ऋण हर साल अपने लक्ष्य को पार कर रही है। अकेले 2010-11 में 375 हजार करोड़ के कृशि ऋण का लक्ष्य था मगर साल पूरा होने तक यह 446778.96 करोड़ तक पहुंच गया। 30 सितंबर 2011 तक 233380.18 करोड़ ऋण बांटा जा चुका है। साल 2009 -10 में छोटे और सीमांत किसानों के कृषि ऋण खातों की संख्या 284.73 फीसदी थी वह वर्ष 2010-11 में बढ़कर 334.67 लाख हो गई है। मौजूदा वर्ष में सितंबर 2011 तक 321 लाख कृषि ऋण खातों को निधियां उपलब्ध कराई गई थी और इन खातों में छोटे तथा सीमांत किसानों के 193.73 लाख खाते भी हैं। इसके अलावा 50 हजार रूपये तक के छोटे ऋण के लिए अदेयता प्रमाण पत्र की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया है। गौरतलब है कि व्यास समिति ,सी रंगराजन समिति ,वैघनाथन समिति और राधाकृष्णा समिति की सिफारिशें सरकार के पास मौजूद है। हमारे देश में 37 फीसदी किसान की पहुंच संस्थागत ऋण तक है। 73 फीसदी के भी एक तिहाई किसानों केा अपनी जरूरत के मुताबिक कर्ज नही मिला पाता। उदारहण के तौर पर अगर कोई किसान 5 लाख का कर्ज लेना चाहता है तो उसे वह नही मिला सकता। 63 फीसदी आज भी साहूकारों के भरोसे हैं। सबसे बुरे हालात पूर्वोत्तर राज्यों में है। यहां सबसे ऋण को लेकर सबसे ज्याद मुश्किल हालात का सामना किसान को करना पड़ता है। इस समय औसतन 20 गांवों में एक बैंक है। मान लिजिए अगर एक गांव एक किलोमीटर के दायरे में फैला है तो किसान को 20 किलोमीटर की यात्रा ऋण लेने के लिए करनी होती है। इसके अलावा बैंक में मानव संसाधन का अभाव इस मुश्किल को और बड़ा रहा है। इन बैंकों को नरेगा का धन देना है। किसान को ऋण देना है। वृद्धावस्था पेंषन योजना का निपटान करना है। षिक्षा से जुडी स्कालरषिप बांटनी है। इसके अलावा रोजमर्रा का काम अलग है। लिहाजा ऋ़ण लेना भी मुष्किल भरा काम है। बहरहाल सरकार ने 2 हजार की आबादी पर 2012 तक बैकिंग सुविधा पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य के पूरे होने के बाद सरकार 1 हजार तक की आबादी तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाएगी। इंतजार इस बात का है की सरकार कब किसनों को बिना शार्त 4 फीसदी की ब्याज दर पर ऋण मुहैया कराती है। यहां राज्य सरकारें भी अपनी भूमिका अदा कर सकती है। चूंकि कृषि राज्यों का विषय है लिहाजा राज्य सरकारें अपनी मद से किसानों को ब्याज दर में छूट दे सकती है। वैसे कई राज्य इस तरह की योजना चला भी रहें है मगर देश भर के किसानों को इसका फायदा हो इस पर व्यापक विचार विमर्श करना होगा।

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