रविवार, 12 मई 2013

पापी पेट का सवाल


सरकार अपना महत्वकांक्षी राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक लोकसभा में पेश कर चुकी है। इसके तहत गांव की 75 फीसदी आबादी होगी जबकि शहरों में यह आंकड़ा 50 फीसदी होगा। इसके तहत तीन रूपये किलो चावल, 2 रूपये किलो गेहूं और 1 रूपये किलो मोटा अनाज दिया जाएगा। एक अनुमान के मुताबिक इसका वित्तिय बोझ सरकार के खजाने में कम से कम 1 लाख करोड़ के आसपास का होगा। सरकार को इस कानून को लागू करने के लिए 6.5 मिट्रिक टन अनाज की जरूरत होगी।  इसमें कोई दो राय नही कि जिस देश का वैश्विक सूचकांक में 88 देशों में 66वां स्थान है उस देष में यह कानून किसी वरदान से कम नही। मगर असली सवाल यह है कि कानून बनाने से पहले जो काम सरकार को करना चाहिए था वह नही किया गया। इसलिए डर है कि यह कानून भी भ्रष्टाचार की भेंट न चढ़ जाए। सरकार को केवल सियासी माहौल बनाने तक समिति नही रहना चाहिए बल्कि इन चुनौतियों के समाधान के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। वरना एक और महत्वकांक्षी योजना मनरेगा की तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाएगी। दरअसल इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए सरकार को कई मोर्चों पर काम करना होगा। सबसे पहली चुनौति है। इस देश का कौन आदमी गरीब है। गरीबी मांपने का आदर्श पैमाना क्या होना चाहिए। गरीबों का सही और सटीक आंकलन कैसे हो। इस पर राज्य सरकारों से बात करनी चाहिए। आज देश के 6.52 करोड़ परिवार बीपीएल श्रेणी के तहत आते हैं। इसमें 2.44 करोड़ अति गरीब परिवार भी शामिल हैं। इन परिवारों को पीडीएस के माध्यम से सस्ता राशन मुहैया कराया जाता है। मगर दूसरी तरफ राज्य सरकारों ने 10.59 करोड़ परिवारों को बीपीएल कार्ड जारी किए हैं। यह मसला अकसर केन्द्र और राज्यों के बीच टकराव का कारण बनता रहा है। राज्य सरकारें खुले आम केन्द्र सरकार पर आरोप लगाती है कि केन्द्र उनके गरीबों को गरीब नही मानता। मसलन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मुताबिक उनके राज्य में बीपीएल परिवारों की संख्या 1.50 करोड़ है जबकि केन्द्र के मापदंड के मुताबिक 65 लाख परिवार ही बीपीएल श्रेणी में आते है। यहां यह बात बता देना भी जरूरी है कि 2006 के बाद इस देश में 2 करोड़ से ज्यादा फर्जी राशन कार्ड निरस्त किए जा चुके हैं। इस फेहरिस्त में आंध्रप्रदेष का नाम सबसे उपर है। कानून को लागू करने में आने वाली दूसरी चुनौति है उत्पादन और उत्पादकता कैसे बढ़ाई जाए? इस देष में खेती की कथा -व्यथा किसी से छिपी नही है। आलम यह है 41 फीसदी किसान विकल्प मिलने पर किसानी छोड़ना चाहते हैं। बीते 13 सालों में 2.50 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुकें है। उत्पादकता के मामले में विकसित देशों से हम खासे पीछे है। एक आंकड़े के मुताबिक वर्तमान में हमारा उत्पादन 245 मिलियन टन के आसपास है जबकि 2020 तक हमें 281 मिलियन टन अनाज की दरकार होगी। इसके लिए जरूरी है की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाई जाए। हमारे देश में चावल की उत्पादकता में सुधार जरूर हुआ है मगर यह नाकाफी है। उदाहरण के तौर पर हमारे देश में प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 3000 किलो ग्राम के आसपास है, जबकि चीन में यही उत्पादन 6074, जापान 5850 और अमेरिका में 7448 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास है। इससे जाहिर होता होता है कि अभी खाद्यान्न सुरक्षा के लिहाज से हमें एक लंबी मंज़िल तय करनी है। क्या महज पूर्वी भारत में हरित का्रंति का अगाज इस समस्या का समाधान है? सरकार चाहे कितनी समितियों का गठन करले । बात बड़ी सीधी और सपाट है। जब तक खेती किसानों के लिए फायदेमंद सौदा साबित नही होगी तब तक इस चुनौति से नही निपटा जा सकता। तीसरा मुददा है खाद्यान्न के रखरखाव की उचित व्यवस्था कैसे की जाए। खाद्यान्न के रखरखाव के लिए भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था का अभाव इस काूनन की हवा निकाल सकता है। आज भंडारण के अभाव में हजारों करोड़ का राशन हर साल खराब हो जाता है। बहरहाल सरकार ने निजि क्षेत्र को लाकर इसका समाधन ढूंढने की कोशिश की है मगर यहा नकाफी है। आज जरूरत है सरकार इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खर्च कर रखरखाव के संसाधन को मजबूत करे। इसके बाद मरणासन्न पड़ी वितरण प्रणाली का में दुबारा जान कैसे डाली जाए। इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं कि देष की सार्वजनिक वितरण प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। सरकार की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक 51 फीसदी पीडीएस का राशन काले बाजार में बिक जाता है। मतलब साफ है, राज्य सरकारें कालाबाजारी रोकने में नाकामयाब रही हैं। चैकाने वाली बात तो यह है कि जिस देश में 51 फीसदी अनाज खुले बाजार में बिक जाता है वहां केवल मुठठी भर षिकायतें दर्ज होती है। क्या आपने कभी सुना है कि वितरण प्रणाली में भारी गडबड़ी के चलते किसी खाद्य मंत्री या खाद्य सचिव को जेल जाना पड़ा है? राज्यों के पास आवष्यक वस्तु अधिनियम कानून 1955 है। मगर इसका इस्तेमाल ज्यादातर मामलों में नही होता। कालाबाजारी से जुड़ी शिकायतों पर अगर गौर किया जाए तो 2007 में 99, 2008 में 94, 2009 में 169 और सितंबर 2010 तक 142 शिकायतें पूरे देश में दर्ज हुई। मतलब साफ है कि मौजूदा वितरण व्यवस्था के सहारे हम इस कानून को लागू करने का सपना भूल जाऐं। वितरण प्रणाली को कैसे दुरूस्त किया जाए इसके अध्यन के लिए सरकार के पास कई रिपोर्ट मौजूद है। इनमें प्रमुख है 1998 में टाटा इकोनामिक कंसल्टेंसी सर्विसेस रिपोर्ट, 2005 की ओआरजी मार्ग की रिपोर्ट, 2007 और 2009 की नेषनल काउंसिल आफ एमलाइड इकानामिक रिसर्च और 2010-11 में आई नेषनल इंस्टिटयूट आफ पब्लिक एडमिनिषट्रेषन। इन सभी रिपोर्ट का लब्बोलुआब एक ही था। देष की वितरण प्रणाली में भारी खामियां है और इसका फायदा जरूरत मंदों तक नही पहुंच पाता। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस वाधवा के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने 19 राज्यों के अध्ययन में यह पाया की यह प्रणाली भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी है। लिहाजा इसमें व्यापक सुधार की जरूरत है। इन रिपोर्ट में यह तक कहा गया की पूर्वोत्तर राज्यों में 100 फीसदी तक राषन डाइवर्ट हो जाता है। बावजूद इसके अब तक इस प्रणाली में सुधार के लिए कोई खास पहल नही की गई। गाहे बगाहे केन्द्र ने राज्यों को दिषनिर्देष जारी कर दिए। और पांचवा की कानून लागू करने के लिए जरूरी धन का इंतजाम। हर साल एक करोड़ से ज्यादा का बजटीय आवंटन इस योजना के लिए इतना आसान नही होगा। खाद्य सुरक्षा कानून की सोच पर किसी को षक नही। चिंता तो सरकार की नियत पर है कि वह इसे क्यों पारित करा रही है। आने वालों चुनावों में सियासी फायदा लेने के लिए भूखों का पेट भरना उसका उददेष्य है।








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