रविवार, 20 अक्तूबर 2013

मकसद से भटकता मीडिया

हिन्दी मीडिया में काम करने से कभी कभी बड़ी पीड़ा महसूस होती है। जब में महसूस करता हूं कि चुटकुलेबाजी की खबरों को दिखाने में मीडिया कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी दिखाता है। मुझे सुनने में आया है की हिन्दी पटटी का दर्शक यही देखना चाहता है। एंकर इनमें चर्चा करने में खुश रहते है। क्योंकि इसमें पढ़ना नही पड़ता। घंटा लफ्फाजी में कब बीत जाता है पता ही नही चलता। क्या देश की अर्थव्यवस्था पर चर्चा की हिन्दी का दर्शक पसंद नही करता? क्या केवल आसाराम और शोभन सरकार की भारतीय दर्शकों की पसंद है? क्या टीआरपी इन नान इश्यू से ही मिलती है? हैरत की बात तो यह है कि  किसी संपादक ने यह कहने की  हिम्मत नही जुटाई की इस खबर को वह एक सामान्य खबर की तरह पेश करेगा, सनसनी की तरह नही? हिन्दी मीडिया में आज अच्छी और उददेश्य परख चर्चाओं का अभाव है। मैं जानता हूं कि मैं भी वही कर रहा हूं? सच तो यह है कि अखबारों की खबरें ही मीडिया की रिसर्च है। जिस देश में बड़ी आबादी हिन्दी बोलती और समझती है वहां हिन्दी चैनल आसाराम और शोभन सरकार के सपने को राष्टीय मिशन बनाकर दिखा रहें हैं। महंगाई लोगों को खा रही है। आज चक किसी चैनल ने यही रहस्योघाटन नही कियाकी इसके पीछ़े वजह क्या है? कैसे सरकार का कुप्रबंधन अर्थव्यवस्था को जीर्णशीर्ण स्थिति पर पहुंचा रहा है? भ्रष्टाचार जो एक शिष्टाचार बन गया है उसपर किसी ने कोई खुलासा नही किया? जलवायु परिवर्तन भविष्य की बड़ी चुनौति है इसपर किसी
का ध्यान नही। कितने एंकरों ने सीएजी की रिपोर्ट को दुआ भी होगा? आए दिन एक नई बीमाारी लोगों का काल का गाल बना नही है, किसी को कोई मतलब नही? यहां सिर्फ चुटकुलेबाजी में टीआरपी दिखाई देती है। जिसकी प्रक्रिया की पूरी तरह फ्राड है। आज हालत यह है कि गाहे बगाहे ही सही यह लोकतंत्र का चैथा स्तंभ भी बाजारीकरण के प्रभाव में इस कदर डूब गया है कि अपने उददेश्यों से भटक गया है। मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई करते समय पढ़ा था
लोकतंत्र हितार्थथाय, विवेकालोकवर्धनी
उदभोधनाय लोकस्य, लोकसत्ता प्रतिष्ठिता।
यह मिशन और विज़न मुझे कहीं दिखाई नही देता। आज बदलाव की जरूरत विधायिक कार्यपालिका न्यायपालिका और सबसे ज्यादा मीडिया में है। मीडिया में इसलिए भी क्योंकि लोगों की अपेक्षा आज इस स्तंभ से कुछ ज्यादा ही हैं।

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