बुधवार, 7 अप्रैल 2010

दन्तेवाड़ा का दर्द

दन्तेवाड़ा का दर्द दहलादेने वाला था। देश में अब तक के सबसे बडे नक्सली हमले ने देश को स्तब्ध कर दिया। शायद आपरेशन ग्रीन हंट में ऐसा भी दिन देखने को मिलेगा यह किसी ने नही सोचा था। यह सच है कि युद्ध में मरना मरना कुछ भी नया नही है। मगर नक्सलियों ने जिस तरह से इस हमले को अंजाम दिया वह किसी बडी चूक की ओर इशारा करता है। खासकर इस तरह के गुरिल्ला युद्ध में खुफिया सूचनाओं का बडा महत्व होता है। मगर इतनी बडे पैमाने पर पहुंची क्षति ने सरकार को अपनी रणनीति पर दुबारा विचार करने के लिए विवश कर दिया है ताकि दण्डेवाड़ा जैसे दिलदहला देने वाले घटनाक्रमों की पुर्नरावृति को रोका जा सके। सरकार को इससे सबक लेना चाहिए। जिन्होनें अपनों को खोया है उनके दर्द की कल्पना नही की जा सकती। मगर उनकी बहादुरी को यह देश सलाम करता है। उन परिवारों को साथ भारत के लोगों की संवेदनाऐं है। घटनाक्रम के तीसरे दिन का अखबार देगा तो मन गमहीन हो गया। कई परिवारों की कहानी पढकर सच कहूं तो आखों में आंसू थे। कोई अपने भरे परिवार का अकेले कमाने वाला, कोई अपने पीछे अपने परिवार को छोड गया । किसी मां क आंसू थमने का नाम नही ले रहे है। पिता को मालूम है कि बुडापे का सहारा सदा के लिए चला गया, मगर दिल अब भी यह मानने को तैयार नही हो रहा है। ईश्वर उन परिवारों को इस दुख से निकलने की शक्ति प्रदान करें। साथ ही सरकार यह सुनिश्चित करें कि किसी भी कीमत में इन परिवारों को अपनी जीवनचर्या चलाने में किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पडे। इस देश में शहीदों के अपमान के अनगिनत मामले सुनने में आते है जिन्हें भविश्य में न दोहराया जाए। जिन्होंने देश के लिए अपने आपको कुबाZन कर दिया उन परिवारो के लिए इस देश के कर्तव्यबोध को जिन्दा रखने की जरूरत है। ताकि कोई सेनिक युद्ध से पहले इस उलझन में न रहे कि उसके बाद उसके परिवार का क्या होगा।

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