मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

आदिवासी भारत

भारत की विशाल आबादी का एक हिस्सा जो बरसों से विकास की जगमगाहट का नजदीकी से अहसास करने के लिए झटपटा रहा है। सच्चाई इतनी कड़वी है कि पीने से मानों जायका बिगड़ जाये। ज़िम्मेदार कौन। न बाबा ना! ऐसा सवाल दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में मत पूछिए, वरना नेताओं को तू तू मैं मैं करने का एक और मौका मिल जायेगा। भारत में अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.5 करोड़ के आसपास है। संविधान में इनके समााजिक, राजनीतिक और आर्थिक हितों को लेकर प्रावधान है। मगर यह हिस्सा विकास से आज भी कोसों दूर है। मानव विकास सूचकांक यानि िशक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं के मामले में आज भी इनकी हालत पतली है। इतना ही नही ओद्यौगिकीकरण और खनन के नाम पर इनहें कई बार अपना घरबार छोडना पडा। हद तो तब हो गई जब कुछ बेपैन्दी कारणों के चलते जंगलों से इन्हें दूर रखने की साजिश की गई। एक बुनियादी सवाल यहां उठता है कि एक व्यक्ति, परिवार और समाज को उसकी आजीविका यानि जल, जंगल और जमीन से दूर करते है तो आप उनके मन में व्यवस्था के खिलाफ खुद ज़हर भर रहे है। इसके लिए जिम्मेदार आप है। ऐसे में उसके पास रास्ता क्या। असहाय स्थिति में वह भोला भाला समाज, बन्दूक उठाने को मजबूर हो जाता है। अब जरा इनके िशक्षा स्वास्थ्य और बाकी मानकों पर एक नज़र डाल ली जाए। िशक्षा में हमारी साक्षरता दर जहां 64.84 प्रतिशत है वही आदिवासी समाज में यह दर 47.10 प्रतिशत है। महिलाओं के मामले में यहां हालात और ज्यादा बुरे है। आदिवासी महिलाओें की साक्षरता दर 34.76 प्रतिशत है जबकि देश में महिला साक्षरता दर 64.84 प्रतिशत है। सर्विशक्षा अभियान और मीड़ डे मील जैसी योजनाओं का भी यहां बहुत बड़ा असर नही पड़ा। जर्जर भवन, पानी बिजली की तंगी मास्टरों का स्कूल न आना यहां की पहचान है। स्वास्थ्य के मामले में भी हालत खराब है। जहां िशशु मृत्यु दर देश में 57 प्रति हजार है वही इन क्षेत्रों में 66.4 प्रति हजार है। कम वजन के बच्चे यहां 35.8 प्रतिशत है जबकि राश्ट्रीय औसत 18.47 प्रतिशत है। बावजूद इसके की 70 के दशक से हम एकीकृत बाल विकास योजना चला रहे है। आज राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का ज्यादा से ज्यादा फायदा इस क्षेत्र में कैसे पहुंचे इसके लिए विचार करना जरूरी है। आदिवासी समाज में 44.7 प्रतिशत लोग किसान है तथा 36.9 प्रतिशत लोग कृशक मजदूर है यानि 81 फीसदी से ज्यादा लोग खेती मतलब जमीन से जुडे है। इससे यह अनुमान लगाना असान है कि जल, जंगल और जमीन के प्रति इनका अगाध प्रेम क्यों है। अगर इनकी आजीविका पर ही हमला हो जायेगा तो जवाब में नक्सलवाद जैसी समस्याऐं कम नही होंगी बल्कि उनमें तेजी आयेगी। आज जरूरत है कि आदिवासी समुदाय तक कल्याणकारी योजनाओं की पहुंच बनाई जाए। नरेगा जैसे कार्यक्रमों को यहां बेहतर इन इलाकों में िशक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी कर आगे बड़ना होगा। आज जनजातिय मन्त्रालय जिसे 1999 में बनाया गया था, राश्ट्रीय आदिवासी नीति पर विचार कर रहा है। ऐसा में एक मौका है की सालों से वंचित इस समुदाय को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए इमानदार प्रयास किये जाए।

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