शनिवार, 21 दिसंबर 2013

राहुल का मिशन 2014

कांग्रेस के लिए मिशन 2014 बहुत ही मुश्किल होने जा रहा है। पांच राज्यों के चुनाव में जिस तरह 4 बड़े राज्यों में उसे करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, उसने पार्टी और कार्यकर्ता के मनोबल को बुरी तरह से झकझोर दिया है। मनोबल टूटना किसे कहते है उसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। जब लंका में हनुमान ने अपनी पूंछ से आग लगा दी तो सारी लंका में यह चर्चा होने लगी की जिसका साधारण सेवक इतना ताकतवर है वह स्वयं आ गया तो क्या होगा।  हालांकि राहुल गांधी संगठन में आमूलचूल परिवर्तन की बात कर रहें है मगर महंगाई और भ्रष्टाचार में बुरी तरह फंसी पार्टी के लिए गठबंधन का दौर भी मुश्किल होन जा रहा है। हालांकि अभी भी कांग्रेस को राज्यों में कई साथी मिल सकतें है। मगर हाल ही में चारा राज्यों के नतीजों ने  सहयोगियों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। मसलन बिहार में नीतीश के साथ जो संभावना बड़ रही थी। वह अब कमजोर पड़ गई है। दूसरा जहां जहां कांग्रेस गठबंधन करेगी वहां वह ज्यादा अपने सहयोगियों को दबा नही पाएगी बल्कि सहयोगी उसके लिए मुश्किल पैदा करेंगे और शर्तें थोपने से बाज नही आऐंगे। मुझे याद है 2009 में राहुल ने एकला चलो का नारा दिया था। मसलन यूपी में वह कामयाब भी रहा मगर बिहार में कांग्रेस को केवल 2 सीट मिल पाई। कांग्रेस के लिए आंध्र प्रदेश जो सबसे बड़ा राज्या था वह टूट चुका है। उसकी भरपाई वह कर्नाटक से करने की कोशिश करेगी। मगर राजस्थान जहां से उसे 2009 में 25 में से 21 सीटें मिली थी वह अब 4 या पांच तक सिमट कर रह जाएगा। दिल्ली जहां उसने 2009 में बीजेपी का सूपड़ा साफ कर दिया था अब खुद उसी हाल में जाती दिखाई दे रही है। मध्यप्रदेश में शिवराज के मजबूत होने का मतलब की वहां 2009 के मुकाबले बीजपी का प्रदर्शन अच्छा होगा। बीजेपी को भरोसा है कि इस बार वह 2009 के 16 सीट के मुकाबले 22 सीटों को जीत सकती है। तकरीबन 22 का ही आंकड़ा उसका गुजरात से बनता है उत्तराखंड की चारों सीटें जो 2009 में  कांग्रेस को मिली थी इस बार एक भी उसके लिए फिलहाल बचाना मुश्किल है। महाराष्ट में कांग्रेस का प्रदर्शन 2004 के मुकाबले जबरदस्त रहा। खासकर मुंबई में एमएनस ने वोट कटवा भूमिका निभाकर कांग्रेस के लिए खेल आसान कर दिया। मगर इससे न सिर्फ शिवसेना और बीजेपी को नुकसान हुआ बिल्क उसके सहयोगी एनसीपी को भी कमजोर किया। मगर कांग्रेस के लिए राहत की बात यह है की धर्मनिरपेक्षता और समझौते के दिखावे आदर्शवाद पर अब भी कई राजनीतिक दल उससे जुड़ सकते हैं।
मसलन उसके सबसे बड़े गढ़ आंध्रप्रदेश में उसे टीआरएस का साथ मिल सकता है। बिहार में लालू और पासवान उसके 2014  में फिर से सहयोगी बन सकते है। वैसे भी लालू कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षेता के मामले में सबसे बड़े सहयोगी हो सकते है। दूसरा लालू मोदी विरोधी चेहरा बनकर अपने माई समीकरण को जिन्दा करने की कोशिश करेंगे। बिहार में नुकसान में सिर्फ और  सिर्फ नीतीश कुमार रहेंगे। झारखंड में जेएमएम को मुख्यमंत्री की कुर्सी देने से पहले ही लोकसभा की जोड़ तोड़ तय कर ली गई थी यानि जेएमएम कांग्रेस के साथ होगी। बीजेपी की कोशिश हालांकि बाबूलाल मरांडी को वापस लाने की हो सकती है और इसमें मोदी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। महाराष्ट में शरद भाउ कितनी हल्ला काटे मगर कांग्रेस उनकी मजबूरी भी है और मुश्किल भी। हां सीटों को लेकर वह कांग्रेस पर दबाव डाल सकते है। क्योंकि महाराष्ट में चुनाव सिर्फ लोकसभा के लिए ही नही बल्कि विधानसभा के लिए भी होने हैं। राजस्थान में उसे केवल अब किरोणीलाल मीणा दिखाई देते है जो 2 ; 4 सीटों में  प्रभाव डाल सकते हैं। आंध्र में विभाजन के बाद उसका सारा भरोसा तेलांगान क्षेत्र से है। यानि यहां टीआरएस का विलय करके या मुख्यमंत्री बनाने का सपना दिखाकर अपना हित साध सकती है। आंध्र प्रदेश के कुल 42 संसदीय क्षेत्रों में से 17 संसदीय क्षेत्र तेलांगाना से आते हैं। विधानसभा की कुल सीटों में 150 विधायक इस क्षेत्र से आते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है की राजनीतिक
लिहाज से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है। फिलहाल 2009 में यहां से कांग्रेस के 12 सांसद और 50 विधायक जीतकर आऐं हैं। यहां ध्यान रखना जरूरी है कि  2004 और 2009 में दिल्ली की सत्ता तक कांग्रेस को पहुंचाने में आंध्र प्रेदश का बहुत बड़ा हाथ रहा। ऐसे में कांग्रसे का सारा जोर अब 17 लोकसभा सीट पर हो चुका है। इसलिए वह राज्य बनाने को लेकर अड़ी हुई है। तमीलनाडू में उसके साथ पीएमके आ सकती है मगर यहां लगता नही कांग्रेस के लिए कोई अच्छी खबर आए। क्योंकि उसके सबसे लाडलेमंत्री पी चिंदबरम भी यहां से सीट बचा पाना मुश्किल लगता है। हां कर्नाटक में जरूर सिद्धरमैया कांग्रेस के लिए चमत्कार कर सकते हैं क्योंकि अपने पहले ही बजट में उन्होंने लोकप्रिय घोषणाओं से जनता को लुभाने का प्रयास किया है। उत्तरप्रदेश में  उसका सबसे खराब प्रदर्शन रहेगा क्योंकि 2009 में 22 सीटों को बचाए रखना उसके सांसदों के लिए नामुमकिन है। 2012 के विधानसभा नतीजों से यह अंदाजा लगाना कठिन नही। यूपी के जमीनी हालात से सबसे ज्याद वाकिफ अगर कोई है तो वह खुद राहुल गांधी हैं। 2014 में राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के सामने खड़े होंगे सबसे जरूरी है कि जनता के दिलों को कैसे जीता  जा सकता है उसे राहुल गांधी को सिखना होगा। अपने संगठन के मनोबल को दुबारा मजबूत करना उनके लिए सबसे बड़ा  चुनौतिपूर्ण कार्य होगा।

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