मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

दंगों पर राजनीति बंद करो!

मुजफरनगर में हुए दंगों ने देश के सबसे बड़े लोकतंत्र को फिर शर्मसार कर दिया। अपने राजनीति स्वार्थ के लिए नेताओं ने एक बार फिर धर्म की आड़ में दो समुदाय को झोंक दिया। सपा समेत कांग्रेस और बीजेपी हर कोई इस दंगों में भी सियासत के नफे नुकसान का फायदा तलाश रहा है। पहले दंगों को रोकने की विफलता जिसके लिए सरकार के मंत्री जिम्मेदार रहे। उसके बाद भड़काउ भाषण देना और धारा 144 को दरकिनार कर पंचायत करना। उसके बाद एक गलत विडियो फेसबुक पर लोडकर जनता की भावनाओं से खेलना। यानि सियासतदानों ने वोट के खातिर सब कुछ किया। नतीजा 60 से ज्यादा लोग मारे गए और 40 हजार से ज्यादा लोगों को अपना घरबार छोड़ना पड़ा। शरणार्थी शिविरों में लोगों को बदइंतजामी से दो चार होना पड़ा। हद तो तब हो गई जब सुप्रीम कोर्ट के कहने पर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मुआवज़े से जुड़ी जो लिस्ट दी उसमें केवल मुस्लिम समुदाय के लोगों के नाम थे। बाद में सुप्रीमकोर्ट कोर्ट के कहने पर उस लिस्ट को सपा सरकार ने वापस लिया। राहत शिविरों में पिछले 2 महिनों में 42 बच्चों की मौत हो चुकी है। 10 हजार से ज्यादा लोग भय के चलते वापस अपने घर नही लौंटना चाहते। इनकी दुश्विारियों पर ध्यान न देते हुए नेताओं को वोट बैंक की चिंता है। मसलन चूल्हे को आधार बनाकर मुआवज़ा देने का ऐलान बंटरबांट का शिकार हो गया। कांग्रेस 8 साल पुराने दंगा विरोधी बिल को लाने के लिए सक्रिय हो गई। जबकि भाजपा और गैरकांग्रेसी सरकारों ने इस संघीय ढांचे पर हमला बताया। कांग्रेस ने अति पिछड़ा वर्ग आयोग से जाटों को केन्द्र में सरकारी नौकरी में आरक्षण देने के अपने 2011 के फैसले पर पुर्नविचार करने को कहा है। राहुल गांधी सार्वजनिक मंच से कहते है की आइएसआई मुजफरनगर के मुस्लिम युवाओं पर डोरे डाल रही है। बीजेपी अपने नेता संगीत सोम और सुरेश राणा जिन पर दंगा भड़काने का आरोप है उनका स्वागत सरकार करती है। राहुल 2 बार दंगा पीड़ितों से मिलने चले जाते है मगर उनकी मुश्किलों का समाधान नही। चैधरी चरण सिंह के जन्मदिन पर जाटों को लुभाने के लिए सपा प्रादेशिक अवकाश की घोषण करती है। मगर जो नही होता वह है

पहला दंगों के लिए जिम्मेदार लोगों की धरपकड़।
मुआवजे को जरूरतमंदों तक पहुंचना।
राहत शिविरों में मानवीय इंतजाम का अभाव
दंगा पीड़ित अब भी खौफ के साये में जी रहें हैं।
दंगों की जांच कर रही जस्टिस सहाय आयोग की समय से रिपोर्ट का न आना। बढ़ा 6 महिने का कार्यकाल।
दंगा विरोधी बिल का पारित न होना
राहत और पुर्नवास को लेकर सरकारी मशीनरी का लचर रवैया।
आखिर में अखिलेश सरकार ने राजधर्म का पालन नही किया।

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