शनिवार, 28 दिसंबर 2013

नक्सलवाद का समधान क्या!

मित्रों नक्सलवाद की समस्या और उसके समाधान को लेकर आज गंभीर मंथन की जरूरत है। देश के
लिए आज यह विषय इसलिए जरूरी है क्योंकि आन्तिरक सुरक्षा के लिए स्वयं प्रधानमंत्री ने कई मंचों से इसे सबसे बड़ी चनौती करार दे चुकें हैं। आप सभी के स्मरण में होगा होगा की पिछले साल मई में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के दौरान कांग्रेस के कई बड़े नेताओं की नक्सलवादियों ने हत्या कर दी। इससे पहले वह छत्तीसगढ़ के ही दंतेवाड़ा में 76 सीआरपीएफ के जवानों की हत्या कर दी। इससे जाहिर होता  है कि नक्सलियों के इरादे कितने खतरनाक है और क्या सरकार इसके लिए अपनी रणनीति में तब्दीली ला रही है। बहरहाल सरकार दो स्तरीय रणनीति पर काम कर रही है। पहला सरकार नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नागरिक प्रशासन की बहाली के साथ साथ विकास का कार्य कराने के लिए प्रतिबद्ध है। 8 राज्यों के प्रभावित 33 जिलों में में इन योजनाओ की प्रगति रिपोर्ट अपे्रल 2009 से जनवरी 2010 तक की सरकार ने जारी की है। मैं आपके सामने इस रिपोर्ट की कुछ बातें भी रखना चाहूंगा कि आखिर नक्सल प्रभावित राज्यों में विकास कार्यक्रमों की स्थिति क्या है।

मित्रों  जिन 33 जिलों की हम बात कर रहे है। हालांकि नक्सल प्रभावित जिलें इससे कही ज्यादा है। उनमें झारखंड के 10 जिले , छत्तीसगढ़ के  7, उडीसा के 5, बिहार के 6, महाराष्ट्र के 2, आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के 1-1 जिले शामिल है। केन्द्र की कल्याणकारी योजनओं में खर्च प्रतिशत में भी हमें सुधार देखने को मिला है। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी नरेगा जैसी योजनाओं 72.76 फीसदी,  प्रधानमंत्री ग्राम सडक योजना में  - 41.04 फीसदी, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन -57.44 फीसदी, वनाधिकार कानून 2006 -37.06 फीसदी। यानि वहां विकास का कुछ प्रतिशत पहुंच रहा है। मगर बुनियादी सवाल यह की हिंसा का रास्त सिर्फ प्रतिहिंसा से होकर गुजरता है। क्या इस मामले को केवल कानून व्यवस्था के नजरिये से  देखना चाहिए या इसपर आगे बड़कर इसका कोई राजनीतिक दल ढंूढना चाहिए। मुझे मालूम है कि यहां मौजूद कई साथी मेरी इस बात से सहमत न हो मगर रास्त हमें ही तलाशना है। क्योंकि रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है
विनय न मानत जलधि जरः, गए तीन दिन बीत
बोले राम सकोप तबः, भय बिनू होय न प्रीत।
मगर किसी भी चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले उसके पृष्टिभूमि को जानना आवश्यक है। आखिर कैसे भारत जैसे देश में नक्सलवाद का जन्म हुआ। नक्सलवाद या कहें माओवाद सही मायने में व्यवस्था के खिलाफ एक जंग का ऐलान था। 1967 में कानू सान्याल और चारू माजूमदार के नेतृत्व में शुरू हुआ यह आंदोलन एक बडा परिवर्तन था। आंदोलन शुरू करने के पीछे की विचारधारा इतनी प्रबल थी कि कई लोग जो उस समय आईएएस और पीसीएस जैसी  परीक्षाओं की तैयारी कर रह थे वह भी इस आंदोलन के साथ जुडे। और नक्सलाबारी से शुरू हुआ यह आंदोलन धीरे धीरे बढ़ता चला गया। मगर तब किसी ने यह नही सोचा था कि एक नये परिवर्तन के आगाज के लिए शुरू हुई यह विचारधारा इस कदर हिंसक गतिविधयों में तब्दील हो जायेगी की देश के प्रधानमंत्री को बार बार सार्वजनिक मंच से कहना पडे़गा कि नक्सलवाद इस देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए सबसे बडा खतरा है। यह सही है कि यह सामाजिक और आर्थिक असुंतलन के चलते उपजी समस्या है मगर वर्तमान में इसका रूप इतना कुरूप है जिसे खत्म कैसे किया जाए इसपर विचार करने की जरूरत है। मसलन
1-प्रश्न नं एक -यह समस्या सामाजिक और आर्थिक असुंतुलन के खिलाफ एक लड़ाई थी।
2- मिटाने के लिए हमने पिछले 40 सालों में क्या कदम उठाये हैं?
3-आखिर क्यों शांतिप्रिय देश में इन लोगों ने बंदूक उठा ली?
4-सरकार इन क्षेत्रों में जो विकासकार्य कर रही है, उसका फायदा क्या आदिवासियों को मिल पर रहा है?
5-नक्सलवादियों के आर्थिक स्रोत क्या हैं?
6-राज्य सरकारें इस समस्या के समाधान को लेकर कितने सजक हैं।यह कुछ ऐसे सवाल है जिसपर विचार किया जाना चाहिए। साथ में यह भी  उस क्षेत्र में हुए अधिग्रहण और पुर्नवास की समस्या पर भी अपनी राय रखें। आशा करता हूं कि कुछ जरूर महव्वपूर्ण बिन्दू यहां से नकलेंगे?

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