मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

लोकपाल की लड़ाई

हर आमोखास में चर्चा का यही मुददा था। क्या यह संसद एक मजबूत और सशक्त लोकपाल बनाने का इतिहास रचेगी? क्या 45 साल का .इंतजार खत्म होगा? क्या अब तक का किया हुआ यह 10 वा प्रयास सफल रंग लाएगा? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देष में एक लोकपाल आ पाएगा? संयुक्त मसौदा समिति, दो महिने में 9 बैठकों के बावजूद आम सहमति नही बना पाई। इसके बाद संसद ने अन्ना की तीन मांगों पर चर्चा की। एक प्रस्ताव पारित कर विधि मंत्रालय की स्थाई समिति को भेज दिया गया। इसकी सिफारिशों के आधार पर लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक सदन में रखा। लोकसभा में चर्चा के बाद इस पारित किया गया। मगर राज्यसभा में आधी रात को हुए हाइवोल्टेच घटनाक्रम में यह विधेयक पारित नही हो पाया। इसके बाद इसे प्रवर समिति को भेज दिया गया। प्रवर समिति ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी। मगर यह विधेयक फिर सरकार की प्राथमिकता में नही रहा। इन सब के बीच आए दिन नए घोटालों और खुलासे और इसमें राजनीतिज्ञों की भूमिका ने मौजूदा माहौल में एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी है। देश की जनता अपने
को ठगा महसूस कर रही है। क्या राजनीतिक दल वर्तमान में आवाम में मौजूद बेचैनी को दूर करने में कामयाब रहेंगे। वर्तमान में मौजूद इस निराशावादी माहौल को दूर करने की आखिरी आष देश की सर्वोच्च नीति निधार्रक संस्था के कंधों पर है। लोकसभा में सत्र को 3 दिन यानि 27 से लेकर 29 तक तारीख बढ़ाई गई। मगर नतीजा ठाक के तीन पात। इधर नागरिक समाज का मसौदा कहता है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाए। मगर सरकार इस पर राजी नही। जबकि 2001 में विधि मंत्रालय की स्थाई समिति प्रधानमंत्री को इसके दायरे में लाने की सिफारिष कर चुकी है। यहां तक की पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और खुद डाॅ मनमोहन सिंह लोकपाल के दायरे में आने की इच्छा व्यक्त कर चुके हैं। पिछले चार दशकों से जनता इस विधेयक की बाट ही जोह रही है। 1966 में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने केन्द्र के स्तर पर लोकपाल और राज्य के स्तर पर लोकायुक्त को नियुक्त करने की अनुशंसा की थी। चैथी लोकसभा में 1969 में इस विधेयक हो हरी झंडी मिल गई। मगर यह राज्यसभा में पारित नही हो सका। इसके बाद 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 इसे पारित कराने के प्रयास हुए मगर सफलता नही मिल पाई। पिछले तीन विधेयकों को संसद की स्थाई समिति को सौंपा गया। इसके अलावा 2002 में संविधान के कामकाज के आंकलन के लिए बनाये गय राष्ट्रीय आयोग ने भी लोकपाल के जल्द गठन की सिफारिश  की थी। 2007 में गठित दूसरे प्रशासनिक आयोग ने भी एक मजबूत लोकपाल की वकालत की। मगर सरकार आम सहमति के नाम पर इस कानून को अब तक लटकाने में सफल रही। देष में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए 1988 में प्रिवेन्सन और करप्शन एक्ट बनाया गया। देष के तकरीबन 18 राज्यों में लोकायुक्त मौजूद है। मगर ज्यादातर लोकायुक्तों का हमने नाम तक नही सुना होगा। कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जब व्यवस्था से लड़ने का जज्बा दिखाया तो नौबत उनके इस्तीफा देने तक पहंुच गई। बाकी राज्यों में भी यह महज सिफारिशी संस्थान बन कर रह गए हैं। कई राज्यों में तो सालों से विधानसभा के पटल पर इसकी रिपोर्ट तक नही रखी गई। जबकि सालाना इसकी रिपोर्ट रखने का प्रावधान है।देश में केन्द्रीय सतर्कता आयोग और सीबीआई है। सीबीआई राजनीतिक इस्तेमाल के लिए बदनाम है और सीवीसी महज एक सिफारिशी संस्थान बनकर रह गया है। संयुक्त सचिव के स्तर के उपर के अधिकारियों की जांच तक के लिए उसे सरकार का मुंह ताकना पड़ता है। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यह एजेंसियां गंभीर मामलों में कितनी न्याय कर पाती होंगी। अगर इन संस्थानों को राजनीतिक हस्तक्षेप से दूर रखा गया होता तो बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता था। इसीलिए आशंका सरकारी मसौदे का लोकपाल महज एक सिफारिशी संस्थान बनाकर न रख दे। आज भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सषक्त लोकपाल बनाने का ऐतिहासिक मौका संसद के पास है। अगर सियासतदान फिर भी नही समझे तो आने वाले समय में जनता के भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि जनता के सब्र का बांध अब टूट चुका है और इसकी बानगी है जन्तर मन्तर में उमड़ा जनसैलाब है। मगर लगता नही की अब ऐसा आंदोलन निकट भविष्य में जल्द देखने को मिलेगा।



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